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जैन तीर्थ : १६५ बाबू आये थे ।' इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि आबू १०३२ ई० से पूर्व भी एक जैन तीर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त था। आचार्य जिनप्रभ सूरि ने "अर्बुदाद्रिकल्प" की रचना की है, जिसमें अर्बुदाचल क्षेत्र का इतिहास और मन्दिर निर्माण का वर्णन है । भट्टारक ज्ञानसागर ने भो “सर्व तीर्थ वंदना" में आबू तीर्थ की अत्यधिक प्रशंसा की है। (क) विमल वसहि :
यह मन्दिर १०३१ ई० में गुजरात के महाराजा भीमदेव सोलंकी के महामात्य पोरवाड़ वंशी विमलशाह ने बनवाया था। ये आबू मंडल (चन्द्रावती प्रान्त) के दण्डनायक थे एवं उस समय आबू पर राजा धुंघुक का शासन था, जो भीमदेव के सामन्त हो गये थे । विमलशाह निःसन्तान थे तथा जीवन की अन्तिम अवस्था में चन्द्रावती एवं अचलगढ़ ही इनका निवास स्थान रहा। अपने गुरु आचार्य धर्मघोष सूरि के उपदेश से इन्होंने यह प्रसिद्ध आदिनाथ मन्दिर बनवाया। इससे पूर्व भी इस स्थान पर कोई जैन तीर्थ रहा होगा, तभी तो आचार्य धर्मधोष सूरि ने इनको आदेश दिया कि “तू आबू तीर्थ का उद्धार कर ।"५
इस मन्दिर की प्रतिष्ठा १०३१ ई० में आचार्य वर्धमान सूरि के द्वारा सम्पन्न हुई, अतएव मन्दिर निर्माण कार्य बहुत पहले ही शुरू हो गया होगा। जैन मान्यतानुसार इस मन्दिर के निर्माण पर १८ करोड ५३ लाख रुपये व्यय हये । यह सम्भव भी है, क्योंकि ४ करोड़, ५३ लाख ६० हजार रुपये तो स्वर्ण मुद्राएँ बिछाकर जमीन प्राप्त करने में ही व्यय हो गये थे । मन्दिर का विस्तार १५५४९२ फीट है । इसमें निर्मित गर्भगृह, सभा मंडप, स्तम्भ, देवकुलिका, हस्तिशाला आदि ११वीं शताब्दी के शिल्प-सिद्धान्त के
१. जैइरा, पृ० ५८ । २. वितीक, पृ० १५ । ३. आबूगढ़ अभिराम, काम त्रिभुवन माँ सारे ।
श्री जिन बिम्ब अनेक, समस्त भव जल तारे ॥ जिनवर भुवन विशाल, देखत पाप पणासे । कहे ताँ न लहूँ पार कर्म अनन्त विनासे ॥ आबूनी रचना प्रबल देखत जनमन उल्लेस ।
ब्रह्म ज्ञान सागर वदति मुझमन जिन चरणे बसे ।। ४. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ६१ । ५. जयन्त विजय, आबू, १, पृ० २९-३० । ६. वही, पृ० ३३ ।
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