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________________ १६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं अनुरूप हैं, एवं इस शताब्दी के अधिकतम मन्दिरों की भाँति भुवनेश्वर प्रणाली के प्रतीक हैं । मुख्य दीवारों के अन्दर की ओर किनारे-किनारे देव कुलिकाएँ हैं, जो जैन स्थापत्य के अनुसार बावन जिनालय कहे जाते हैं । प्रत्येक जिनालय में प्रवेश द्वार के समक्ष ऊँची वेदी पर २४ तीर्थंकरों में से एक तथा उनके आश्रित देव / देवियों की अन्य प्रतिमाएँ स्थित हैं । दो-दो खम्भों के मध्य में स्तम्भों के अनुरूप टिकी हुई मेहराबों से प्रत्येक जिनालय के लिये पृथक एक मंडपिका सी बन जाती है । प्रत्येक विभाग पर मेहराबदार अथवा चपटी छतों के कारण ये और भी स्पष्ट दिखाई देती हैं । पर्वत के नीचे वाले भाग झालीवाब के श्वेत संगमरमर से सम्पूर्ण मन्दिर निर्मित है । मन्दिर का बाह्य स्वरूप सादगी पूर्ण है, किन्तु अन्तःभाग में स्तम्भ, छतें, मण्डप आदि की बारीक तक्षण कला सर्वोत्कृष्ट है । विभिन्न जैन मतावलम्बियों द्वारा भिन्न-भिन्न देवकुलिकाओं का निर्माण करवाने से प्रत्येक की सजावट में भिन्नता स्पष्ट दृष्टिगत होती है, परन्तु सम्पूर्ण निर्मित संरचना यह प्रमाणित करती है कि इसकी निर्माण योजना एक ही मस्तिष्क की उपज रही होगी । यद्यपि जिनालयों की वेदियाँ सादगीपूर्ण हैं, लेकिन स्तम्भों एवं छतों पर धन, श्रम, कौशल और अभिरुचि का खुलकर प्रयोग हुआ है । छतों के सूक्ष्म तक्षण को देखकर ऐसी प्रतीति होती है कि यह संगमरमर पत्थर की न होकर सफेद कागज या प्लास्टिक की हो, जिसे शिल्पकार ने छेनी से नहीं, अपितु कैंची से काटकर सुघड़ता से निर्मित किया हो । जिनालयों के सम्मुख चारों ओर दोहरे स्तम्भों की मंडपाकार प्रदक्षिणा हैं । इसके बाद विशाल प्रांगण के ठीक मध्य में मुख्य मन्दिर । पूर्व की ओर से प्रवेश करने पर हस्तिशाला (२५ x ३० फीट) है । इसके आगे २५ फीट लम्बा-चौड़ा मुख मण्डप हैं | उससे आगे देवकुलों की पंक्ति व भमिति और उपरोक्त वर्णित प्रदक्षिणा मण्डप है । तत्पश्चात् मुख्य मन्दिर का ४८ स्तम्भों की कुम्भिकाओं पर टिका हुआ रंगमण्डप मिलता है, जिसका गोल शिखर २४ स्तम्भों पर आधारित है । प्रत्येक स्तम्भ के अग्रभाग पर तिरछे शिलापट्ट आरोपित हैं, जो उस भव्य छत को धारण करते हैं । छत की पद्मशिला के मध्य में बने हुये लोलक की कारीगरी अद्वितीय और कला के इतिहास में विख्यात है । उत्तरोत्तर छोटे होते हुये चन्द्रमण्डलों (ददरी ) युक्त कंचुलक, कारीगरी सहित १६ विद्याधारियों की आकृतियां अत्यन्त मनोहारी है । रंगमण्डप को रचना व उत्कीर्णन का कौशल देवलोक जैसा आभास देता है । रंगशाला से आगे नवचौकी है । छत के (९) नौ विभागों के कारण यह नाम रखा गया है । इससे आगे गूढमण्डप है, जहाँ से मुख्य प्रतिमा का दर्शन-वन्दन किया जाता है । इसके सम्मुख गर्भगृह में एक ॐची वेदी पर सप्तधातु निर्मित मूल नायक आदिनाथ की विशाल मूर्ति है । इस प्रतिमा में नेत्र हीरों से निर्मित हैं, जो स्वयं ही प्रकाशवान् हैं । गर्भगृह एवं समस्त जिनालयों के के ऊपर शिखर बने हुये हैं, एवं सर्वत्र सूक्ष्म शिलांकन की छटा पुष्प, लतिकाएं, तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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