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________________ - - - - जैन तीर्थ : १६७ की माता के १४ स्वप्न, नेमिनाथ की बारात, शासन देवताओं आदि के अंकन से मण्डित है। यहाँ को दुर्लभ पंचधातु प्रतिमाएँ, तीर्थंकर मूर्तियाँ, देवी-देवता, यक्ष, किन्नर, भैरव, गन्धर्व की मूर्तियाँ आदि मूर्तिकला के श्रेष्ठ नमूने हैं । छतों में पुष्पों के तक्षण का वैविध्य इतना कलात्मक, सुरुचिपूर्ण और सौन्दर्यमय है, कि निर्जीव पाषाण भी सजीव प्रतीत होते हैं। वस्तुतः यहाँ की कला में सोद्देश्यता दृष्टिगत होती है । मूलनायक के दाहिनी और आँगन के दक्षिण-पश्चिम कोने में अम्बिका का मन्दिर स्थित है, जो इस जिनालय से भी प्राचीन बताया जाता है । इसके बाहर भैरव, क्षेत्रपाल अपने वाहन श्वान के साथ चित्रित है। पास ही विशाल कक्ष में नेमिनाथ की विशाल मूर्ति है, जो एक ही संगमरमर के पत्थर से बनी हुई है । मन्दिर के सामने अश्वारूढ़ विमलशाह की मूर्ति है । पीछे विमलशाह का भतीजा बैठा है । मूर्ति के ऊपर वैभव का प्रतीक छत्र भी लगा हुआ है। मूर्ति के चारों ओर दस, कारीगरी एवं आभूषणों से युक्त, गजारोहियों की मूर्तियाँ निर्मित हैं। मन्दिर के दरवाजे पर ११४९ ई० में निर्मित हस्तिशाला है, जिसे विमलशाह के वंशज-वेढक, आनन्दक, पृथ्वीपाल, धीरक, लहरक एवं नीनक नामक पुरुषों ने बनवाया था। इसके अतिरिक्त एक हाथी परमार जगदेव ने तथा दूसरा ११८० ई० में महामात्य धनपाल ने बनवाया था। सभी हाथियों पर प्रारम्भ में मूर्तियां रही होंगी, किन्तु वर्तमान में केवल तीन ही अवशिष्ट हैं । इस हस्तिशाला के बाहर महाराव लूण्ढा (लुम्भा, लुढकर्ण-देवड़ा चौहान) के दो शिलालेख हैं। इस मन्दिर का कुछ हिस्सा १३११ ई० में मुसलमान आक्रमणकारियों ने तोड़ दिया था । अतः १२२१ ई० में मांडव्यपुर (मंडोर) के निवासी गोसल के पुत्र धनसिंह एवं भाई भीमा के पुत्रों बीजड़, महणसिंह आदि ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। धर्मघोष सूरि की परम्परा के आचार्य ज्ञानसुन्दर सूरि ने इसकी प्रतिष्ठा की। गुजरात के राजा बघेल सारंगदेव के समय का १२९३ ई० का भी एक शिलालेख इस मन्दिर की दीवार पर है। विमलशाह के वंशज हेमरत्न और दशरथ ने ११४४ ई० में मन्दिर के कक्ष की मरम्मत करवाई।' पृथ्वीपाल ने ११४७ ई० और उसके पुत्र धनपाल ने ११८८ ई० में कई कक्षों का पुननिर्माण करवाया। इस मन्दिर में छोटे-बड़े कुल २४९ लेख हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण १३२१ ई० को प्रशस्ति है । १. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ६२ । २. १३१५ ई० का लेख एवं १३१६ ई० सुरह लेख । ३. जिनप्रभसूरि, तीर्थकल्प । ४. तीर्थराज आबू, पृ० ४२ । ५. वही, पृ० ४१ । ६. वही। ७. इनका संग्रह अप्रजैलेस में है। ८. अप्रजैलेस, भाग १, क्र० ७ । ८. अत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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