SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं ४२ श्लोकों की इस प्रशस्ति में मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा के अतिरिक्त नाडोल के चौहान राजा आसराव से लेकर महाराव लुम्भा एवं तेजसिंह तक का वंश - वृक्ष दिया गया है । आबू के चौहानों की वंशावली की इस जानकारी के अतिरिक्त इस लेख में गुजरात के सोलंकी राजाओं एवं आबू के परमार राजाओं के विषय में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है । १२९३ ई० के लेख के अनुसार विमलवसहि एवं लूणवसहि मन्दिरों की व्यवस्था का सारा भार आबू के ठाकुरों पर डाला गया। संस्कृत मिश्रित राजस्थानी गद्य में लिखित इस लेख में, बघेला राजा सारंगदेव के माण्डलिक बीसलदेव ने हाथ जोड़कर यह लिखा है कि उनकी वंश परम्परा का कोई भी व्यक्ति इस दानपत्र का उल्लंघन न करे। यात्रियों की जान-माल की सुरक्षा की व्यवस्था तथा यात्रियों की सामग्री खो जाने पर पुनर्भरण का दायित्व भी सरकार का होगा । आज्ञापत्र सर्वसम्मति से सर्वग्राह्य बनाया गया था । (ख) लणवसहि ( लणसिंह वसति ) : आबू का जगत्प्रसिद्ध दूसरा मन्दिर इसके मूलनायक के नाम से नेमिनाथ मन्दिर भी कहलाता है । इसका निर्माण धोलका के सोलंकी राजा वीरधवल के महामंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने करवाया था । तेजपाल की धर्मपत्नी अनुपमा देवी चन्द्रावती के श्रेष्ठी गांगा के पुत्र धरणिग की पुत्री थी, जिससे तेजपाल के लावण्य सिंह नामक पुत्र था । उसी की स्मृति एवं कल्याण के लिये, गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (द्वितीय) के सामंत, परमार राजा सोभासिंह की अनुमति से इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया था । यह मन्दिर विमल वसहि के समीप ही स्थित है । मन्दिर की प्रतिष्ठा नागेन्द्र गच्छ के आचार्य विजयसेन सूरि ने १२३० ई० के मध्य करवाई । मन्दिर की लागत १२ करोड़ ५३ लाख रुपये थी । इस मन्दिर का विन्यास व रचना भी प्रायः आदिनाथ मन्दिर के सदृश है । यहाँ भी उसी प्रकार का प्रांगण, देवकुल तथा स्तम्भ मंडपों की पंक्ति विद्यमान है । पृथक्ता यह है कि इसकी हस्तिशाला प्रांगण के बाहर न होकर अन्दर ही है | रंगमंडप, नवचौकी, गूढमंडप और गर्भगृह की रचना पूर्वोक्त प्रकार की ही है, किन्तु यहाँ रंगमंडप के स्तम्भ कुछ अधिक ऊँचे हैं और प्रत्येक स्तम्भ की बनावट व कारीगरी भिन्न-भिन्न है । मंडप की छत छोटी है, किन्तु रचना व उत्कीर्णन का सौन्दर्य विमल सहि से किसी प्रकार भी कम नहीं है । इस मन्दिर के गूढ़ मण्डप के दोनों पावों में दो भव्य, नक्काशीदार गोखड़े हैं, जो देवरानी व जिठानी के गोखड़े कहलाते हैं । इन्हें तेजपाल ने अपनी दूसरी पत्नी सुहड़ा देवी के स्मरणार्थ, सवा लाख रुपये की लागत से १. अप्रजैलेस, पृ० ८-१० २. भादिजैती, ४, पृ० १३१-१३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy