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जैन तीर्थ : १६९
तैयार करवाया था । गोखड़ों की प्रतिष्ठा १२४० ई० में हुई। मन्दिर के पृष्ठभाग के 'मुख मण्डप में १० खंड की हस्तिशाला है, जिसमें प्रत्येक में संगमरमर का एक एक हाथी है । हाथियों के पीछे वस्तुपाल, तेजपाल एवं अन्य परिवार जनों की आदम-कद मूर्तियां निर्मित हैं । मन्दिर के बाहर एक बगीचे में दादा साहब की पादुकाएँ और एक स्तम्भ निर्मित है । १३२१ ई० के अलाउद्दीन खिलजी के जालौर आक्रमण के समय, यहाँ भी कुछ क्षति हुई थी । पेथड़ ने १३२१ ई० में ही इसकी मरम्मत व जीर्णोद्धार करवाया।
इस मन्दिर की १२३० ई० में सोमेश्वर द्वारा रचित ७४ श्लोकों की प्रशस्ति, सोमपुरा केलण के पुत्र, धांधल के पुत्र चन्द्रेश्वर के द्वारा उत्कीर्ण है। सरस्वती वन्दना व वीतराग वन्दना के पश्चात्, पाटण के सोलंकी राजाओं की प्रशस्ति, तत्पश्चात् मंदिर निर्माताओं का वंश वैभव, वशिष्ठ ऋषि का यज्ञ, परमार धूमराज की उत्पत्ति एवं वंश परम्परा, वस्तुपाल, तेजपाल के चरित्र की विस्तृत चर्चा अनुपमा देवी के वंश का वर्णन आदि हैं । इसके अतिरिक्त इसमें गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल, मालवपति बल्लाल, कोंकणी राजा मल्लिकार्जुन के सन्दर्भ, परमार धारा-वर्ष व उसके छोटे भाई प्रहलादनदेव को वीरता तथा विद्वत्ता, मेवाड़ के सामन्त सिंह एवं गुजरात के सोलंको राजा अजयपाल के बीच युद्ध तथा तेजपाल को व्यापार-कुशलता, कूटनीति, प्रबन्ध ‘पटुता, एवं दानशीलता का परिचय मिलता है। यह लेख उस समय समाज के विद्या प्रेम, दानभाव, एवं धर्मनिष्ठा पर भी प्रकाश डालता है ।' १२३० के ही एक अन्य संस्कृत गद्य लेख में मन्दिर की व्यवस्था के निमित्त आबू के परिमण्डल के गांवों को जिम्मेदार बनाया गया है। तत्कालीन परिहार राजपुत्रों, आबू के तपोधनी गांगुली ब्राह्मणों एवं राठी लौकिकों पर रक्षा का भार डाला गया था। यह लेख तत्कालीन समाज व्यवस्था पर प्रकाश डालता है कि मन्दिर सभी समाज के लोगों के लिए रक्षणीय वस्तु होता है । इसके अलावा इस लेख में आबू के उस समय के आश्रमों, राजाओं, राजपुत्रों, प्रजा, गोष्ठियों के सदस्यों की नामावलियों, गाँवों के नामों, चन्द्रावती के श्रेष्ठियों तथा विभिन्न गांवों में ओसवालों एवं पोरवालों की बस्तियों का पता लगता है।
लूणवसहि मन्दिर का सूत्रधार शोलनदेव था। मन्दिर के गुम्बजदार खेला मंडप, छतों पर त्रिषष्टिशलाकापुरुषों के आख्यान, फलफूल, बेल-बूटे, नर्तक-नर्तकियाँ, वादक दल, पशु-पक्षी, जलचर, राजदरबार, बारात, विवाह प्रसंग, संन्यास जीवन की गौरवमयी परम्परा, युद्ध विद्या के विभिन्न आयाम यथा मल्ल विद्या, शस्त्राभ्यास,
१. तीर्थराज आबू, पृ० ११२ । २. असावै, पृ० १३-१८ । ३. वही।
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