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१७० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं
घुड़सवारी, गजारोहण, रथयात्रा, सैन्य संचालन के दृश्य, नृसिंह, अवतार, कालिया दमन, कृष्ण जन्म के प्राचीनतम उत्कीर्णन, मद्य गोष्ठी आदि दृश्यों के चित्रण, तक्षण-कला, कुराई की बारीकी की दृष्टि से अनुपम हैं ।
उपरोक्त दोनों मंदिर भुवनेश्वर शैली के हैं, जिसमें शिखरों की ऊँचाई कम होती है । सम्भवतः आबू पर भूकम्प के झटके आते रहने के कारण भी शिखर कम ऊँचाई के रखे गये । बाहर से ये मन्दिर अत्यन्त सामान्य, किन्तु अन्दर पाषाणी वैभव की भव्यता संजोये हुए हैं । विमलवसहि की कुराई में मनुष्य जीवन से सम्बन्ध रखने वाले श्रेष्ठ प्रसंग उकेरे गये हैं, तो लूणवसहि में अलंकरणों की प्रधानता है । इनके रचना सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए फर्गुसन ने लिखा है, "यहाँ संगमरमर पत्थर पर जिस परिपूर्णता, लालित्य और अलंकरण की शैली से काम किया गया है, उसकी अन्य कहीं भी उपमा मिलना कठिन है ।"" श्री एच० कोसेन ने लिखा है " संगमरमर का पतला और पारदर्शी छिलके की भांति, पत्थर की तक्षण कला अन्य जगहों की कला से कहीं आगे बढ़ जाती है, और उसमें उत्कीर्ण अंश सुन्दरता के स्वप्न दिखाई देते हैं । ऐसी सुन्दरता लाने का रहस्य यह बताया जाता है कि शिल्पकार को घिसकर निकाले गये चूर्णं के प्रमाण से वेतन दिया जाता था । मन्दिर की तक्षण मूर्तियों के आधार पर हम उस काल की वेष-भूषा, रीति-रिवाजों की जानकारी प्राप्त करते हैं । संगीत और नृत्य की मूर्तियाँ नाट्य शास्त्र के आधार पर निर्मित हैं | कर्नल टॉड ने इन मंदिरों को देखकर कहा था, "इनका वर्णन करना लेखनी को अपमानित करना है | किसी भी धैर्यवान कलाकार की वर्तनी कितना ही कर चुकाकर भी ऐसा कार्य नहीं कर सकती ।" वह आगे कहता है, कलात्मक सम्पन्नता की दृष्टि से गॉथिक वास्तुकला की शैली का कोई भी अलंकरण इसकी तुलना का नहीं है । यह अर्ध-निमीलित कमल पुष्पों के सदृश दिखाई देते हैं, जिनकी पंखुड़ियाँ इतनी पतली, इतनी पारदर्शी और इतनी पी तुली हैं कि ये दृष्टि को प्रशंसा के कोण पर स्थिर कर देती हैं । " ३ डा० जी०एन० शर्मा के अनुसार "यदि ताजमहल एक स्त्री का संस्मरण है, तो इन मन्दिरों के पीछे एक धर्मनिष्ठ उदारता मूर्तिमान दिखाई देती है ।"४ हैवेल और स्मिथ ने तो यहाँ लिख दिया है कि कारीगरी और सूक्ष्मता की दृष्टि से इन मन्दिरों की समता हिन्दुस्तान में कोई इमारत नहीं कर सकती । भारतीय शिल्पियों ने जो कला-कौशल व्यक्त किया है; उससे कला के क्षेत्र में भारत का मस्तिष्क सदैव गर्व से ऊँचा उठा रहेगा । सारांश
१. हिस्ट्री ऑफ इंडियन ऐण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० ३६ ।
२. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ३ ।
३. टॉड, ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया, पृ० ११३ ।
४. जी० एन० शर्मा, राजस्थान का इतिहास, पृ० ५८७ ।
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