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________________ जैन तीर्थ : १७१ यह है कि इन मन्दिरों के निर्माण से, एच० जिम्मर के शब्दों में, “भवन ने अलंकार का रूप धारण कर लिया है, जिसे शब्दों में समझाना असम्भव है ।" ( ग ) पित्त - लहर या जैन मन्दिर, भीमाशाह : सहि के पीछे की ओर पित्त-लहर नामक जैन मंदिर है, जिसे गुर्जर वंश के भीमाशाह ने १५ वीं शताब्दी के मध्य में बनवाया । १४४० ई० के लेख से एवं सोमसुन्दरसूरिकृत "अर्बुदगिरिकल्प" के अनुसार यह मन्दिर १४३२ ई० के पूर्व ही प्रतिष्ठित हो चुका था । इसमें प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की १०८ मन वजन वाली पीतल की धातु प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जिसे श्रीमाल जातीय मंत्री सुन्दर एवं मंत्री गदा ने बनवाया था । " गुरुगुण- रत्नाकर - काव्य" के अनुसार ये अहमदाबाद के सुल्तान मुहम्मद बेगड़ा के दरबारी थे । सुन्दर व गदा ने १४६८ ई० में परिकर सहित ८ फीट ऊँची एवं साढ़े पाँच फीट चौड़ी ऋषभदेव की प्रतिमा की स्थापना की । इन पीतल की मूर्तियों के कारण ही इसे पित्तलहर मन्दिर कहा जाता है। किसी कारणवश यहाँ से मेवाड़ के कुम्भल मेरू नामक स्थान को पहुँचा दी गई थी । इस मन्दिर की बनावट भी पूर्वोक्त मंदिरों जैसा ही है । मूलगर्भ गृह, गूढ़ मण्डप और नवचौकी तो परिपूर्ण हैं, किन्तु रंग मण्डप और भमिति कुछ अपूर्ण ही रह गये हैं । गूढ़ ause में आदिनाथ को पंचतीर्थ की पाषाण प्रतिमा तथा अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं, एवं सबसे उल्लेखनीय यहाँ महावीर के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी की पीले पाषाण को मूर्ति है । एक अन्य स्थान पर आदिनाथ के गणधर, पुण्डरीक स्वामी की प्रतिमा भी है । इससे पूर्व की प्रतिष्ठित मूर्ति इस मन्दिर के बाहर सुरभि पर १४३२ ई० का चौहानवंशी राजधर देवड़ा चुंडा का लेख है, जिसमें देवड़ा, सांडा, मंत्री नाथू एवं सामन्तों ने मिलकर विमल वसहि,. लूणवसहि एवं पित्तलहर मन्दिर के दर्शनार्थं आने वाले यात्रियों का कर हमेशा के लिए. माफ कर दिया था । इस लेख के लेखक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य पण्डित सत्यराज गणी थे । यहाँ के १४२६ ई० के लेख में कुछ भूमि व ग्रामों को दान दिये जाने का भी उल्लेख है । (घ) चौमुखा या पार्श्वनाथ जैन मन्दिर : इस मन्दिर की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने की थी । अतः इस मन्दिर को " खरतरवसहि" भी कहते हैं । इस मन्दिर के सभा मण्डप के २३ स्तम्भों पर सिलावटों के नाम होने से लोग इसे "सिलावटों का मन्दिर" भी कहते हैं । चतुर्मुख १. अप्रजैलेस, क्र० ४०७, पृ० १६१ | २. श्रीमाता के मन्दिर का १४४० ई० का लेख ३. असावे, पृ० १३-१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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