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________________ ८वीं से १२वीं शताब्दी - पूर्व मध्यकाल, १३वीं से १६वीं शताब्दी - मध्यकाल, १७वीं व १८वीं शताब्दी - उत्तर मध्यकाल विभिन्न परिप्रेक्ष्यों पर आधारित उक्त स्थूल कालिक-अनुक्रमण, राजस्थान के लौकिक व सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से उचित और युक्तियुक्त है। मुस्लिम शासन देश के विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न कालों में स्थापित हुआ, अतः मुस्लिम शासन की स्थापना से ही मध्यकाल का प्रारम्भ मानना अनुचित है। ८वीं शताब्दी के कुछ पूर्व से, राजस्थान में विभिन्न क्षत्रिय वंशों का अधिवासन प्रारम्भ होने व विभिन्न प्रदेशों से जन समुदायों के आगमन से, जैन धर्म का इस प्रदेश में अपर्व उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ, जो १२वीं शताब्दी के अन्त व कुछ क्षेत्रों में १३वा शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक चरमोत्कर्ष पर रहा। जैन धर्म के प्रचार व प्रसार के स्पष्ट प्रमाण ८वीं शताब्दी से ही उपलब्ध होने लगते हैं। हरिभद्र सूरि, उद्योतन सूरि, सिद्धर्षि आदि अनेक जैनाचार्यों ने, विपुल मौलिक साहित्य सृजन कर जैनमत को लोकप्रिय बनाने के अथक प्रयास किये। जैन राजनयिकों व धष्ठी वर्ग ने राजपूत राजाओं की सहानुभूति व उदारता प्राप्त कर अनेकों मंदिर, मूर्तियाँ आदि प्रतिष्ठित करवाई। आबू के विमल व वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा निर्मित मंदिर, शिल्पकारों व वास्तुकारों के दीर्घ अनुभव से उत्पन्न-स्थापत्य व तक्षणकला की श्रेष्ठ निमितियाँ रहीं, जिनकी विलक्षण कुराई व उत्कीर्णन अद्यतन अतुलनीय है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी व लोक भाषाओं में विद्वान् जैन मुनियों ने मौलिक साहित्य सृजन किया । चित्रकला की दृष्टि से इस काल में ताड़पत्रीय ग्रन्थों, काष्ठ पट्टकों आदि पर जैन चित्रकला की लघु शैली विकासमान हुई। जैन साधुओं ने जैन धर्म का उज्जवल पक्ष प्रस्तुत कर, विभिन्न समुदायों को जैन मत में दीक्षित होने के लिये प्रवृत्त किया, फलस्वरूप ८वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य क्षत्रिय और वैश्यों के द्वारा जैन मत स्वीकार करने से, उत्तरी भारत की कई महत्त्वपूर्ण जैन जातियाँ-ओसवाल, खंडेलवाल, पोरवाल, बघेरवाल, जायसवाल, पल्लीवाल आदि, तथा इनके विभिन्न गोत्र अस्तित्व में आये । जैन संघ में भी ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार जैन धर्म में ८वीं से १२वीं शताब्दी तक साहित्य, कला, स्थापत्य, जाति-निर्माण आदि विविध क्षेत्रों में, जैनाचार्यों, श्रेष्ठियों, राजाओं, राजनीतिज्ञों व श्रावकों के अपूर्व सहयोग से अत्यधिक उन्नति हुई, अतः पूर्व मध्यकाल में जैन मत की प्रभावना चरमोत्कर्ष पर होने के कारण हर दृष्टि से इसे "स्वर्णकाल" माना जा सकता है। यद्यपि मुस्लिम आक्रमण एवं तज्जनित धर्मान्ध विध्वंस का प्रारम्भ राजस्थान में ११वीं शताब्दी से ही हो गया था, किन्तु १३वीं शताब्दी से हमें परिवर्तन की एक नई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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