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२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं
रामदेव ने जैन संघ के संचालकों को एक सन्देश प्रसारित कर अनुरोध किया था कि वे जैन मूर्तियों को रेत के टीले में छिपाकर रखें, ताकि धर्मान्ध व्यक्तियों से उनकी रक्षा हो सके ।
चौहानों की एक शाखा ने नाडौल में ९६० ई० से १२५२ ई० तक था। चौहान अश्वराज, सोलंकी शासक कुमारपाल के अधीनस्थ था । स्वीकार कर लिया था और उसे संरक्षण प्रदान किया था । इसने अपने पालन के लिए कुछ निश्चित दिनों पर जीव हिंसा का निषेध घोषित कर रखा था ।
राज्य में अहिंसा
अश्वराज ने अपने पुत्र कटुकराज को सेवाड़ी ग्राम जागीर के रूप में दिया, जहाँ का महावीर का जिन मंदिर ख्याति प्राप्त था । सेवाड़ी से प्राप्त १११० ई० के शिलालेख में, अश्वराज के राज्यकाल में प्रदत्त दान का विवरण है। इस अनुदान के अनुसार पद्राड़ा, मेंद्रचा, छेछड़िया एवं मेंद्दडी गाँव के प्रत्येक कुएँ वाले किसान को एक हारक यव (जौ) धर्मनाथ देव की दैनिक पूजा-अर्चना हेतु, महास्थानीय उप्पलराक द्वारा समीपाटी - मंदिर में देने का आदेश था । १११५ ई० में अंकित दूसरे शिलालेख में वर्णित है कि कटुकराज ने ८ द्रम वार्षिक का अनुदान थल्लक को दिया था, ताकि वह शिवरात्रि के दिन खत्तक में प्रतिष्ठित शांतिनाथ की पूजा कर सके । २ ११३० ई० के, नाडलाई के महावीर मंदिर के लेख के अनुसार, मोरकरा गाँव से घाणक तेल से चौहान पत्रा के पुत्र बिनसरा ने कलश के नाप का तेल अनुदान में दिया। चौहान राजा रायपाल भी जैन धर्म का महान् संरक्षक था । ११३२ ई० के नाडलाई शिलालेख से, रायपाल के दोनों पुत्रों, रुद्रपाल एवं अमृतपाल तथा उनकी माता, रानी मानलदेवी के द्वारा नाडलाई के बाहर के जैन सन्तों को, प्रति घाणी दो पल्लिका तेल अनुदान के रूप में दिये जाने का उल्लेख है । इसकी साक्षी में कुछ व्यक्तियों के नाम भी दिये हुये हैं तथा दान की अवहेलना करने वाले के लिये, एक हजार गाय तथा ब्रह्म हत्या पाप बताया गया है । * ११३८ ई० में, रायपाल के राज्यकाल के, नाडलाई से ही प्राप्त एक अन्य अभिलेख में, गुहिलवंशीय उद्धरण के पुत्र ठक्कुर राजदेव द्वारा नेमिनाथ की पूजा के निमित्त, नाडलाई में आने-जाने वाले लदे हुये वृषभों पर लिये जाने वाले कर का दशमांश प्रदान करने का उल्लेख है ।" ११४३ ई० का, नाडलाई के आदिनाथ मंदिर का लेख, यहाँ
शासन किया
इसने जैन धर्म
१. कनयनयनिय महावीर प्रतिमा कल्प, सोमाणी - पृथ्वीराज चौहान ऐंड हिज टाइम्स,
पृ० ८९ ।
२. एइ, ११, पृ० ३०-३२ ।
३. नाजैलेस, १, क्र० ८४२, पृ० २१२ ।
४. एइ, ११, पृ० ३४-३५ । ५. वही, पृ० ३७-४१ ।
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