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जैनधर्मं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : १९
मुनि गुणचन्द्र के मध्य शास्त्रार्थ में निर्णायक का भी कार्य किया था ।" इसके उत्तराधिकारी अर्णोराज अथवा आन्हलदेव की खरतरगच्छीय जिनदत्त सूरि के प्रति अगाध श्रद्धा थी, जो ११३३ ई० के पूर्व सिंहासनारूढ़ हो चुका था । उनके उपदेश से उसने जैन मंदिर बनवाने हेतु एक उचित स्थान भी प्रदान किया था । जिनदत्तसूरि की मृत्यु १९५४ ई०, अजमेर में हुई एवं उनका निर्वाण स्थल “दादाबाड़ी" के नाम से जाना जाने लगा। इसके पश्चात् राजस्थान के विभिन्न भागों में कई स्थानों पर इनकी स्मृति में दादाबाड़ियों का निर्माण हुआ । आन्हलदेव (अर्णोराज) ने, संडेरक गच्छ के नाडोल स्थित, महावीर मंदिर की पूजा के निमित्त धूप-दीप की व्यवस्था हेतु मण्डपिका की आय में से प्रतिमाह ५ भ्रम देने की घोषणा की थी । ३ ११५२ ई० में अर्णोराज का उत्तराधिकारी बीसलदेव विग्रहराज हुआ। इसने भी जैन धर्म को अपने पूर्वजों की भाँति उचित प्रश्रय दिया । उसने जैनियों के लिये बिहार बनवाये तथा धर्मघोष सूरि आदि जैनाचार्यों के आग्रह पर एकादशी के दिन जानवरों के वध पर रोक लगा दी । नाडौल से प्राप्त ११५६ ई० के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि तीन जैन मंदिरों के निर्वाह के लिये, बादरी नगर की मण्डपिका से प्रतिदिन एक रूपक का दान दिया जाता था । ५
इसके बाद अपरगाग्य एवं फिर पृथ्वीराज द्वितीय क्रमशः शासक बने । ११६९ ई० के बिजौलिया अभिलेख से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज द्वितीय ने बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के निमित्त, मौरकुरी नामक गाँव दान में दिया था । पृथ्वीराज द्वितीय का उत्तराधिकारी, उसका चाचा सोमेश्वर हुआ, जो अर्णोराज का पुत्र था, उसने स्वर्गं प्राप्ति की इच्छा से रेवा नदी के तट पर स्थित पार्श्वनाथ मंदिर को रेवाना ग्राम की सम्पूर्ण आय दान की थी। अपनी व्यक्तिगत शूरवीरता से, वह "प्रताप लंकेश्वर" नाम से भी प्रसिद्ध है । सोमेश्वर का उत्तराधिकारी, १९७९ ई० में पृथ्वीराज तृतीय हुआ । वह धार्मिक वाक्युद्धों को पसन्द करता था । उसके दरबार में १९८२ ई० में जिनपति सूरि और उपकेशगच्छीय चैत्यवासी पद्मप्रभु के मध्य एक वाद-विवाद का आयोजन हुआ जिसमें जिनपति सूरि विजयी रहे ।" जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि इनके एक मन्त्री
था,
१. कैटेलॉग ऑफ मेनु० इन द पट्टन भण्डार्स, पृ० ३१६ ।
२. खबृगु, पु० १६ ।
३. एइ, ११, पृ० ४७ ।
४. कैटेलॉग ऑफ द मेनु० इन द पट्टन भण्डार्स, पृ० ३७० ।
५. इए, ४१, पृ० २०२ ।
६. इए, ३१, पृ० १९ ।
७. एइ, २४, पृ० ८४ ।
८. खबुगु, पृ० २५-३३ ।
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