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________________ २१२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म यहाँ से खोजी गई हैं। ९९८ ई० की "धर्मरत्नाकर" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके लेखक जयसेन खण्डेला आये थे और उन्होंने धर्मोपदेशों से जनता को अत्यधिक प्रभावित किया था ।२ १२८९ ई० में जिनप्रभ सूरि भी खण्डेलपुरा आये और अपने उपदेशों से उन्होंने बहुत से लोगों को जैन मत में धर्मान्तरित किया । जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिये मूल संघ के भट्टारक जिनचन्द्र सूरि के शिष्य ब्राह्मणिक भी १४६१ ई० में आये । इस समय पल्ह के पुत्र शाह गुर्जर और जगसी ने उन्हें “वर्धमान चरित्र" की प्रति लिखवा कर भेंट की। ( २३ ) हथूण्डी (राता महावीर ) तीर्थ : हथंडी बीजापुरा से पाँच किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में है। इसका प्राचीन नाम "हस्तिकंडी" था । १०वीं शताब्दी में यह राष्ट्रकूटों की राजधानी था। शीलविजय सूरि और जिन तिलक सूरि ने इस तीर्थ का उल्लेख अपनी तीर्थ मालाओं में किया है। हथूण्डी के राठौर शासक जैन मतावलम्बी थे। वासुदेवाचार्य के उपदेश से विदग्ध ने ऋषभदेव का एक मन्दिर हथूण्डो में बनवाया और इसे अनुदान भी दिया। राज्य को प्राप्त होने वाले करों का कुछ हिस्सा जिन मन्दिर के निमित्त निश्चित किया गया था। मम्मट के पुत्र धवल ने अपने दादा द्वारा बनवाये गये जैन मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और अपने पुत्र बाला प्रसाद के साथ "पिप्पल" नामक कुएँ की भेंट मन्दिर को प्रदान की। हस्तिकुण्डी की गोष्ठी ने भी इस मन्दिर के पुननिर्माण में भाग लिया था एवं प्रतिमाओं का स्थापना-समारोह वासुदेवाचार्य के शिष्य शालिभद्र के द्वारा ९९७ ई० में सम्पन्न हुआ था । राष्ट्रकूटों के शासन के पश्चात्, मुगल आक्रमण एवं विध्वंस के परिणामस्वरूप, इस मन्दिर के मूलनायक ऋषभनाथ के स्थान पर महावीर हो गये । १२४२ ई० में पूर्णभद्र उपाध्याय ने दो कक्ष और शिखर निर्मित करवाये। संभवतः महावीर की प्रतिमा इसी समय यहाँ पर प्रतिष्ठित की गई जो "राता महावीर" के नाम से जानी जाती है । मूलनायक की प्रतिमा संभवतः लाल रंग की थी । धीरे-धीरे यह तीर्थ "राता महावीर" के नाम से ही प्रसिद्ध होने लगा। विभिन्न स्थानों से यहाँ तीर्थयात्री दर्शनार्थ आते थे। १२७८ ई. के एक लेख में इस मन्दिर के लिये "राता महावीर" १. प्रोरिआसवेस, पृ० ५६ । २. जैग्रप्रस, पृ० ३ । ३. ब्यावर के शास्त्र भण्डार में ग्रं० सं० १६ । ४. एसिटारा, पृ० २७० । ५. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, १, पृ० २०९ । ६. एइ, १०, पृ० २० । ७. प्रोरिआसवेस १९०८, पृ० ५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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