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जैन तीर्थ : २११
और “क्षमाछत्तीसी" की रचना यहीं पर की।
तपागच्छ की एक शाखा नागपुरिया गच्छ का उद्भव यहीं से हुआ। वादिदेव सुरि के एक शिष्य पद्मप्रभ सूरि ने १११७ ई० में नागौर में कठिन तप किया, अतः उन्हें "नागोरिया तपा" की उपाधि प्रदान की गई। १५वीं शताब्दी में लोंका गच्छ की एक शाखा नागौर के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। मूलसंघ भट्टारक जिनचन्द्र के जीवन काल में इनके दो शिष्य प्रभाचन्द्र एवं रत्नकीर्ति ने १५वीं शताब्दी में नागौर में एक पथक् गादी स्थापित कर ली।
सामाजिक एवं जातीय दृष्टि से नागौर का अत्यधिक महत्व रहा। ओसवाल वंशावलियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि नागौर में आदित्यनाग और बप्प नाग गोत्रों के जैन मतावलम्बी अधिक संख्या में रहते थे। अन्य कई जातियों में भी इस स्थान से सम्बन्धित गोत्र पाये जाते हैं । (२२) खंडेला तीर्थ :
सीकर से ४५ किलोमीटर दूर खण्डेला कस्बा स्थित है। यह एक पुरातन महत्व का कस्बा है, जहाँ प्राचीन मन्दिरों एवं स्मारकों के कई भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसके प्राचीन नाम "खण्डिल्ला" और "खण्डेलपरा" मिलते हैं। इस स्थान से ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के शिलालेख भी खोजे गये हैं। पूर्वकाल में यहाँ शैव धर्म का प्रचार अधिक था। जिनसेनाचार्य ने यहाँ के चौहान शासक को प्रजा सहित जैन मत में धर्मान्तरित करके खण्डेलवाल जाति को उत्पन्न किया। सम्भवतः यह ८वीं शताब्दी में हुआ।
खंडेला प्रसिद्ध जैन तीर्थ था। सिद्धसेन सूरि कृत "सकलतीर्थ स्तोत्र" में जैन तीर्थ के रूप में इसका उल्लेख है । सम्भवतः जैन मत का खण्डेला गच्छ यहीं से उद्भूत हुआ। यहाँ का सरावगी मन्दिर अत्यधिक पुराना है, किन्तु खण्डित अवस्था में है और ध्वस्त है । यह १०वीं शताब्दी से भी अधिक पुराना है।' मध्यकाल की कई मूर्तियाँ भी
१. अभय ग्रन्थ भण्डार, ग्रस० ४३५८, ४४५५ । २. जैग्रप्रस, पृ० ३ । ३. खबृगु, पृ० ९६ । ४. एरिराम्युअ, १९३४-३५, क्र०१। ५. यह खण्डेलवाल वंशावली के द्वारा प्राप्त सूचना पर आधारित है । ६. एसिटारा, पृ० २६२ । ७. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ८. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ५७ ।
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