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________________ जैन कला : ३०९ ९४६ ई० से पूर्व का "पद्मावतो मन्दिर"' तथा प्रतापगढ़ के निकट वीरपुर का प्राचीन जैन मन्दिर भी स्थापत्य की इसी शैली के निदर्शक हैं। कोटा क्षेत्र में रामगढ़ से तीन मील दूर पहाड़ियों पर गुफाओं के मध्य ८वीं एवं ९वीं शताब्दी का "कृष्ण विलास" नामक कस्बा था, जो वर्तमान में केवल "विलास" नाम से जाना जाता है । इसमें तीन खंडहर ८वीं, ९वीं शताब्दी के मध्य के जैन मन्दिर हैं । इनमें से एक प्राचीन काल में बहुत बड़ी संरचना रहा होगा, क्योंकि पास ही इसके प्रस्तरों, छज्जों, मेहराबों, कलश एवं अलंकृत प्रस्तर, ढेर के रूप में पड़े हुये हैं, जिनमें कुछ तीर्थकरों की भग्न प्रतिमाएँ भी हैं । इससे सिद्ध होता है कि यह मन्दिर बहुत भव्य व विशाल रहा होगा। दूसरा मन्दिर यद्यपि आकार में छोटा है, किन्तु तीर्थंकरों की बड़ी संख्या में प्राप्त मूर्तियों से ज्ञात होता है कि इसकी निर्माण शैली भी पारम्परिक ही रही होगी, जिसमें किसी भी स्थान को अनलंकृत नहीं छोड़ा जाता था। तीसरा मन्दिर बड़ा रोचक है । इसका भवन विशाल नहीं है और इसकी निर्माण सामग्री में से अधिकांश, पड़ोसी गाँव के लोगों द्वारा अपने मकानों के निर्माण में प्रयोग में ले ली गई है । इस मन्दिर में १६ देवालय थे और प्रत्येक में तीर्थंकर की एक प्रतिमा थी। इस प्रकार एक ही मन्दिर में १६ तीर्थंकर पूजित थे। इसके अतिरिक्त चातसू में पहाड़ी पर वर्तमान में शिव मन्दिर, किन्तु मूलतः खण्डेलवाल जैन मन्दिर तथा अलवर क्षेत्र में भंगुर का १०वीं शताब्दी का मन्दिर भी स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण हैं। ___इन शताब्दियों के मन्दिर कामुक दृश्यों के अभाव तथ अन्तर्निहित सादगी के कारण पृथक् से पहिचाने जा सकते हैं। इन मन्दिरों में पत्थर का व्यापक प्रयोग होता था, जिसमें स्तम्भ, उदम्बर, तोड़े, छज्जे आदि से रचना की जाती थी। ये तत्त्व मूलतः काष्ठकला से प्रेरित थे। रचना विधि समतल व बोझ को लम्बवत् रखने की अपेक्षा समतल रखने की थी। जन-जीवन से अभिन्न रूप से सम्बद्ध, इस काल का स्थापत्य मूलतः लौकिक था, जिसका ध्येय व्यक्ति विशेष की रुचियों का प्रदर्शन करना नहीं, अपितु जन-जीवन की धार्मिक भावना को साकार करना था। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के सिद्धान्त पर विकसित इस काल के स्थापत्य में कमल, चक्र स्वस्तिक आदि अष्ट मांगलिक चिह्न पूर्णतः स्वीकृत थे । मन्दिर का शिल्प अत्यधिक अलंकरण लिये हुए भी वास्तुकला के तालमान व शास्त्रीय मानदण्डों के अनुरूप था, जिससे सौन्दर्य में सादगी'पूर्ण अभिवृद्धि होती थी। १. प्रोरिआसवेस, १९०४-०५, पृ० ६१ । २. गजेटियर-प्रतापगढ़ राज्य, पृ० २०० । ३. प्रोरिआसवेस, १९०९-१०, पृ० ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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