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________________ ३१० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं (ख) ११वीं से १३वीं शताब्दी - स्वर्ण काल : जैन स्थापत्य के इतिहास में यह काल, शिल्प कला के चरमोत्कर्ष पर होने के कारण "स्वर्ण युग" माना जा सकता है । इस काल में राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में चौहान चालुक्य और परमार शासक राज्य कर रहे थे, जो जैन मत के बहुत बड़े संरक्षक थे । इसके अतिरिक्त जैन धर्मावलम्बी श्रेष्ठियों, व्यापारियों, मंत्रियों व अन्य राज्याधिकारियों ने भी जैन धर्म को प्रभावना को प्रोत्साहन दिया । इस काल में ऐसे मन्दिर निर्मित हुए, जो वास्तु एवं अलंकरण की दृष्टि से अनुपम थे । इस्लाम के आगमन से पूर्व ही वास्तुशास्त्र के "मानसार", "समरांगण", "सूत्रधार" आदि उल्लेखनीय ग्रन्थ थे । वास्तुकला एक बृहत् वास्तुविधा बन गई थी । मन्दिर के छोटे-छोटे से तत्त्वों का भी विवेचन किया जा चुका था तथा निर्माण सम्बन्धी छोटी-छोटी बातों के भी निश्चित मानदण्ड निर्धारित हो चुके थे । शास्त्रीयकरण की यह स्थिति, कला की अत्यन्त विकसित अवस्था के साथ ही सम्भव होती है। इस काल में वास्तुकला बहुत अधिक उन्नत अवस्था में थी और उसकी परम्पराएँ बहुत गहरी एवं दृढ़ थीं । स्थापत्य में पत्थर का व्यापक प्रयोग होता था । स्तम्भ, दीवारें, छतें व शिखर प्रस्तर निर्मित ही होते थे । बड़ी-बड़ी शिलायें उपलब्ध होने के कारण उनसे विविध विधियों से छतें पाटी जा सकती थीं । प्रस्तर कार्य में अब तक इस क्षेत्र के वास्तुकार अत्यन्त निपुण हो गये थे । यद्यपि इस काल के वास्तु में मेहराब भी देखने को मिलते हैं, किन्तु मेहराब पर वास्तुकार का भरोसा नहीं था । इसके अतिरिक्त प्रस्तर रचना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान थी और प्रस्तर में ही वह उन अलंकरणों का उपयोग कर सकता था, जिनका ईंट व चूने में प्रयोग सम्भव नहीं था । काष्ठ शिल्प को प्रस्तर पर उत्कीर्ण करने के संस्कार अब तक परिपक्व हो चुके थे । यही नहीं, शिल्पकारों ने स्थापत्य को अलंकरणों के माध्यम से अधिकाधिक समृद्ध बनाने के उपाय भी खोज लिए थे । काष्ठ कला के संस्कारों ने उत्कृष्ट प्रस्तर शिल्प को जन्म दिया, जिसकी चरम अभिव्यक्ति देलवाड़ा के मन्दिरों में देखने को मिलती है । इस काल में बहुत से मन्दिर निर्मित हुये, जिनकी संरचना पूर्व कालीन मन्दिरों से भिन्नता लिये हुये थी । इस काल में बावन जिनालय के मन्दिरों की रचना अधिक हुई । मन्दिर में सामान्यतः गर्भगृह, गूढ़ मण्डप, चौकियाँ, सभा मण्डप, श्रृंगार चौकियाँ, देव कुलिकाएँ आदि निर्मित होने लगीं । मन्दिर के विस्तार में भव्यता एवं विशालता आई । मन्दिरों में नागर शैली के शिखर अधिक बनने लगे। इनके विन्यास में गर्भगृह, गूढ़ मण्डप और मुख मन्दिर होते हैं, जो बाहर और भीतर एक दूसरे से जुड़े हुये होते हैं । इनकी सामने की दीवारों का तारतम्य ऐसे कटावों द्वारा ही टूटता है, जो क्रम से बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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