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________________ जैन कला : ३११ निकले हुये या अन्दर धँसे हुये होते हैं । इसके फलस्वरूप एक ऐसा चित्र-विचित्र रूपांकन हमारे सामने आता है, जिसमें प्रकाश और छाया का अन्तर दर्शाया गया होता है । कुछ बड़े मन्दिरों में उसी रेखा में एक ऐसा सभा मण्डप भी जोड़ दिया गया होता है, जिसके सम्मुख भाग में तोरण का निर्माण किया गया हो । चौलुक्य शैली के मन्दिरों में पीठ, वेदी बंध और जंघा - जिन्हें सामूहिक रूप से मंडोवर, वरण्डिका और शिखर कहा जाता है, जैसे सभी सामान्य भाग पाये जाते हैं और ये सभी भाग, जिनमें सजावटी अलंकरण सम्मिलित हैं, परम्परा द्वारा एक निश्चित क्रम में निर्मित किये जाते हैं । इस शैली के एक विशिष्ट मन्दिर में जाड्यकुम्भ, कर्णिका और ग्रास पट्टी के पीठ की सज्जा वस्तुएँ, जैसे- गजथर और नस्थर महात्वाभिलाषी संकल्पनाओं पर आधारित हैं, जिनके बीच अश्वथर का निर्माण किया गया होता है । पारम्परिक वेदी-बंध-सज्जा के ऊपर जंघा होती है, जिसका अलंकरण बाहर निकली हुई देवी-देवताओं और अप्सराओं तथा भीतर की ओर बनायी गयी अप्सराओं, व्यालों या तपस्वियों की मूर्तियों के द्वारा किया गया होता है । इन मन्दिरों की बनावट परिस्तंभीय हैं और उनके स्तम्भों पर एक निश्चित क्रमानुसार आकृतियों का तथा अन्य सज्जा-रचना द्वारा विशेष अलंकरण किया गया है । मण्डपों में स्तम्भों का एक अष्टकोणीय विन्यास दिखाई देता है । मण्डप की गुम्बदाकार छत का आधार, ऐसी तोरण सज्जा का एक अष्टकोणीय ढाँचा है, जो स्तम्भों पर टिकी है और जिसके कम होते जाने वाले संकेन्द्रीय वलय अन्त में जाकर एक अति सुन्दर केन्द्रीय लोलक (पद्मशिला) का निर्माण करते हैं ।" विकसित चौलुक्य शैली के जैन मन्दिर में एक गर्भ गृह, वक्र भाग युक्त एक गूढ़ मण्डप, छह या नौ चौकियों वाला एक स्तम्भ युक्त मुख मण्डप तथा सामने की ओर एक परिस्तम्भीय नृत्य मण्डप होते हैं । ये सब एक चतुष्कोण में होते हैं, जिसके आसपास देवकुलिकाएँ होती हैं, जिनके सामने भमती के एक या कभी-कभी दो खण्डक होते हैं । स्तम्भ युक्त मुख मण्डप का यह छह या नौ खण्डकों में विस्तार तथा उसके आसपास भमती युक्त देवकुलिकाओं का सम्मिलित किया जाना, ये दोनों ही परिकल्पनाएँ चौलुक्य निर्माण शैली में जैन धर्मावलम्बियों की विशेष योगदान हैं । आबू का " विमल सहि" और कुंभारिया (प्राचीन आरासण) का १०६२ ई० के मन्दिर इसी प्रकार के हैं । अर्बुद मण्डल के मन्दिर : २ इस क्षेत्र में शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार मन्दिर बनाये गये । कुम्भेरिया के ११वीं शताब्दी के जैन मन्दिर चतुष्कोणीय अंग शिखर व मुख्य शिखर सहित दोहरे आमलक छत्र वाले हैं । यहाँ के मन्दिरों के मण्डप अद्वितीय हैं तथा सफेद संगमरमर से १. जैन स्थापत्य एवं कला - २, पू० ३०२ । २. वही, पृ० ३०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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