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________________ ३१२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म निर्मित हैं । स्तम्भों की नक्काशी, मेहराबों का अलंकरण और जिनालय योजना, विकसित स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। माउंट आबू का १०३१ ई० में निर्मित "विमल वसहि" तथा १२३० ई० में वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा निर्मित "लूणवसहि" शैली की दृष्टि से एक जैसे हैं। इनके सौन्दर्य और शिल्प निपुणता की प्रशंसा कई विद्वानों के द्वारा की गई है। “कोजेन्स" के अनुसार-“इन मन्दिरों की सुन्दर साज-सज्जा की मात्रा, जो छतों, स्तम्भों, दरवाजों आदि में निरूपित है और चातुर्दिक विस्तृत है, केवल अत्यधिक सुन्दर कही जा सकती है । संगमरमर का अपारदर्शीय पतला और छिलके जैसा कलात्मक प्रयोग, कहीं भी देखी गयी कलात्मक सम्पन्नता को पीछे छोड़ देता है । कुछ अलंकरण और चित्रण तो सौन्दर्य के विलक्षण स्वप्न जैसे हैं।" फयूंसन', टॉड आदि कई विद्वानों ने इन मन्दिरों की खुलकर प्रशंसा की है। विमल वसहि, १२८४७५ फीट लम्बे-चौड़े चतुष्कोणीय प्रांगण में चौवन जिनालयों से घिरी हुई है। जिनालयों के बाहर दोहरे स्तम्भों की मण्डपाकार प्रदक्षिणा है । प्रांगण के ठीक मध्य में मुख्य मन्दिर है, जिसमें सभा मण्डप, नवचौकी, गूढ़ मण्डप व गर्भगृह हैं । मन्दिर के बाहर २५ x ३० फीट की हस्तिशाला है, जिसमें गजारूढ मूर्तियाँ एवं विमल की अश्वारूढ़ प्रतिमा है । हस्तिशाला के आगे मुख मण्डप व फिर देवकुलों की पंक्ति, भमिति और प्रदक्षिणा मण्डप हैं । लूणवसहि मन्दिर में भी रंग मण्डप, नवचौकी, गढ़ मण्डप, गर्भगृह आदि हैं । अन्तर यह है कि इस मन्दिर में हस्तिशाला अन्दर प्रांगण में है व रंग मण्डप के स्तम्भ कुछ अधिक ऊँचे हैं। इसी शैली के मन्दिर इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में थे। चन्द्रावती के आसपास जैन मन्दिरों के विस्तृत खंडहर हैं। यहाँ से प्राप्त अनेक स्तम्भों की नक्काशी इतनी महीन और वैविध्यपूर्ण है कि कोई भी दो स्तम्भ एक जैसे नहीं हैं। विविध तीर्थमालाओं से यहाँ विपुल जैन मन्दिरों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आबू और सिरोही के बीच मीरपुर का सुन्दर मन्दिर तेजपाल का है। अजारी के महावीर जैन मन्दिर के दरवाजों की अलंकृत चौखट इसे १२वीं शताब्दी का सिद्ध करती है। झाड़ोल का शान्तिनाथ जैन मन्दिर ११४१ ई० से पूर्व का है। इसके स्तम्भ व मेहराबें शैली की दृष्टि से विमल वसहि जैसी हैं । इनके अतिरिक्त नांदिया", झाड़ोली और मूंगथला" १. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन ऐण्ड ईस्टर्न आर्कि०, पृ० ३६ । २. स्थापत्य के विस्तृत वर्णन के लिये अध्याय चतुर्थ देखें । ३. गजेटियर-सिरोही राज्य, पृ० २४८ । ४. वही। ५. वही। ६. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४८ । ७. वही, १९०६-०७, पृ० २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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