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________________ जेन कला : ३१३ के जैन मन्दिर भी अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर इसी काल के हैं । कोजरा के - सम्भवनाथ जैन मन्दिर के गूढ़ मण्डन के अभिलेखानुसार यह भी १२वीं शताब्दी का है एवं वाधिन पहाड़ी के मन्दिर भी १२वीं शताब्दी के हैं । 2 उपरोक्त मन्दिरों के अतिरिक्त इस क्षेत्र के जीरावला, वरमाण, पिंडवाड़ा, नितोड़ा, कालंद्री गोहली आदि के जैन मन्दिर भी बावन जिनालय पद्धति के हैं । इस -पद्धति के भी दो प्रकार इस क्षेत्र में मिलते हैं । पहली पद्धति में मूल मन्दिर के चारों ओर मुख्य द्वार को छोड़कर ५१ देवकुलिकाएँ होती हैं, जिनके सामने स्तम्भों पर टिका हुआ एक बरामदा होता है । दूसरी पद्धति में मुख्य मन्दिर के पीछे और गर्भगृह के दोनों पावों में अन्तरंग मन्दिर और उनके सामने स्तम्भों पर टिका हुआ गुम्बद होता है । इन गुम्बदों को मिलाते हुए बरामदों के भीतर ४८ देवकुल प्रकोष्ठ चारों ओर होते हैं । वरमाण में इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है । सिरोही के चौमुखा मन्दिर, अजितनाथ मन्दिर, आदीश्वर मन्दिर एवं देलवाड़ा के मन्दिरों में भी यही शैली है । - बावन जिनालय पद्धति का एक नया रूप अजारी के प्राचीन मन्दिर में दिखाई देता है, जहाँ मूल मन्दिर के चारों ओर पचास देवकुलिकाएँ और मन्दिर के पीछे एक अन्तरंग मन्दिर तथा गूढ़ मण्डप दिखाई देता है । वस्तुतः मन्दिर के निर्माण में शिल्पशास्त्र, ज्योतिष, गणित एवं तन्त्र विद्या का विशेष स्थान है। बावन जिनालय की यह रचना वर्ण - मात्रिका के ५२ अक्षरों को स्थापना का तन्त्र विधान है, जिसके सम्राट् " अकार" रूप में परमात्व तत्त्व की प्रतिष्ठा रहती है । ४ बीच में स्वर ये मन्दिर मुख्यतया तीन पद अर्थात् एक कतार में चार स्तम्भ एवं उनके बीच में तीन स्थान वाली पद्धति से निर्मित हैं । इस क्षेत्र के प्राचीन मन्दिरों में सामान्यतया ६ चौकियाँ होती हैं, जो तीन-तीन खम्भों की ४ कतार वाले १२ स्तम्भों पर टिकी रहती हैं । पर्याप्त स्थान वाले पुराने विशाल मन्दिरों में नवचौकियाँ भी होती थीं, जो ४-४ • स्तम्भों की ४ कतारों अर्थात् १६ स्तम्भों पर टिकी होती थीं। सिरोही के आँचलिया, आदीश्वर मन्दिर, पिंडवाड़ा के महावीर मन्दिर, नांदिया के महावीर मन्दिर एवं गढ़ चँवरली के खंडित जैन मन्दिर में नौचौकियाँ हैं । ऊँची पीठिका पर स्थित मन्दिर के मुख्य द्वार पर नौबत खाना होता है । यह नौबतखाना खेलामण्डप में सीढ़ियों के ऊपर होता है । कुछ मन्दिरों में खेला मण्डप के अतिरिक्त नृत्य मण्डप भी होता है । मूँगथला के मन्दिर में ऐसा ही मण्डप है । यहाँ के जैन मंदिरों में मुख्य द्वार पर शृंगार चौकियाँ १. प्रोरिआसवेस, १९१६-१७, पृ० ६२ । २. वही, पृ० ५९ । ३. वही, पृ० ६५ । ४. असावे, पृ० १७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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