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३१४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
होती हैं । इस क्षेत्र के मन्दिरों के शिखर नागर शैली के हैं, जो अलंकृत एवं सादे दोनों प्रकार के हैं । कुछ पुराने शिखर इंटों के भी हैं, किन्तु ११वीं शताब्दी के बाद के शिखर पत्थर के ही हैं । ईंट, चूने के बने शिखरों में मीरपुर मन्दिर का शिखर उल्लेखनीय है । इन मन्दिरों में प्रयुक्त पाषाण स्थानीय ही था । यहाँ तक कि मूर्तियों का पत्थर भी स्थानीय ही होता था । पिंडवाड़ा क्षेत्र के मन्दिरों का प्रस्तर अजारी व शिवगंज क्षेत्र के, मन्दिरों का खंदरा की खानी से तथा जगत् प्रसिद्ध दिलवाड़ा के मन्दिरों का पत्थर भी सेलवाड़ा, पैरवा एवं झालीबाब की खानों से प्राप्त किया गया है। आबू की पश्चिमी तलहटी पर नष्टप्राय लाखावती नगरी के आरस पत्थर सेलवाड़ा के ही हैं। कुम्भारिया के पास तो आरस पत्थर की बहुत सी खानें थीं, अतः प्राचीन अभिलेखों में इसका नाम "आरासणा" दिया हुआ है ।'
इस क्षेत्र में शिल्पियों की एक पूरी परम्परा रही है। विमलवसहि के शिल्पी का नाम तो काल के गर्त में समा गया है, किन्तु लूणवसहि मन्दिर का शिल्पी शोभनदेव था। इस क्षेत्र में सूत्रधारों की बड़ी बस्तियाँ रही हैं । इनके सम्बन्ध मुण्डारा, वरकाणा एवं सादड़ी के उन शिल्पियों से रहे हैं, जिनके पूर्वजों ने महान् वास्तुकार एवं तक्षक देपाल के नेतृत्व में रणकपुर के मन्दिर को बनाया था। १९९५ ई० में झाड़ोली के विशाल मन्दिर का जीर्णोद्धार करने वाला नीरड़ नामक सोमपुरा था। विमल वसहि मन्दिर के जीर्ण होने पर १२९३ ई० में नरादित्य ने उसवी कला को नया रूप दिया। १३१५ ई० में सोमपुरा, लूणसि, चुहारा, चेजारा, रावल और आल्हा ने इसको ठीक किया। लूणवसहि मन्दिर की मरम्मत भी १४१५ ई० में स्थानीय कारीगरों ने ही की। अन्य मन्दिर :
चौहान शासकों के अन्तर्गत ११७७ ई० के बिजौलिया अभिलेख से स्पष्ट है कि लोलक के पुरखों ने टोडारायसिंह, बघरा, नरेणा, नरवर और अजमेर में जैन मन्दिर बनवाये थे । स्वयं लोलक ने बिजौलिया पार्श्वनाथ मन्दिर और उसके आसपास ७ मन्दिर बनवाये थे । वर्तमान में ये पूर्णतः आधुनिक निर्माण शैली के दिखाई देते है।
१. असावै, पृ० १७४ । २. अप्रजैलेस, पृ० १०९ । ३. वही, पृ० १०। ४. वही, पृ० ८९। ५. वही, पृ० १५९ । ६. प्रोरिआसवेस, १९०६-०७, पृ० २६ ।
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