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________________ प्रतिमाओं, भग्नावशेषों आदि के रूप में बिखरी पड़ी है । इनसे प्राप्त सूचनाओं को संयोजित कर, समग्र रूप से प्रस्तुत करने की महती आवश्यकता है। इस संदर्भ में डॉ० के० सी० जैन का "जैनिज्म इन राजस्थान" यद्यपि एक अग्रणी एवं प्रशंसनीय शोधपरक प्रयास है और इसमें प्राचीन काल से अद्यतन, सुदीर्घ अवधि के जैन इतिहास के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है, किन्तु राजस्थान का जैन इतिहास इस प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास के लिये ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत के जैन इतिहास-निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि जैन मत की महत्त्वपूर्ण जातियों एवं गोत्रों की उत्पत्ति व प्रसार यहीं से हुआ, महत्त्वपूर्ण जैन साहित्य अधिकांशः यहीं रचा गया और इसी प्रदेश के भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सुरक्षित प्रदेशों में कला एवं साहित्य के कतिपय उत्कृष्ट प्रतिमानों को सुरक्षित रखा गया । इतने महत्त्वपूर्ण जैन इतिहास को छोटे कालखण्डों में बाँटकर समीक्षात्मक अध्ययन की आवश्यकता पिछले कई वर्षों से अनुभव की जा रही है, अतः जैन धर्म संबंधी, राजस्थान के विभिन्न कोनों में सुदीर्घ काल से उपेक्षित, अज्ञात व अछूती पड़ी सामग्री को भी, यथाशक्य संकलित कर, आलोचनात्मक, सूक्ष्म निरीक्षण के उपरान्त, नये तथ्य प्राप्त करके, मध्यकाल के विभिन्न कालखण्डों में, समेकित रूप से प्रस्तुत करने का यह तुच्छ एवं विनम्र प्रयास इस शोध-प्रबंध के द्वारा किया जा रहा है, ताकि जैन धर्म के अपरिचित प्रभाव का और अधिक सही मूल्यांकन किया जा सके और ८वीं से १८वीं शताब्दी तक के मध्यकाल में इसके प्रचार-प्रसार, उत्कर्ष-अपकर्ष, विध्वंस एवं जीर्णोद्धार सम्बन्धी गवेषणात्मक निष्कर्षों से एक क्रमबद्ध इतिहास सृजित हो सके । प्रस्तुत शोध-प्रबंध में गवेषणात्मक सामग्री को, मध्यकाल के पूर्वोक्त ३ काल खण्डों के अन्तर्गत अग्रलिखित अध्यायों में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत संयोजित किया गया है । प्रथम अध्याय में जैन इतिहास सृजन के स्रोतों का वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्याय में राजस्थान के विभिन्न शासकों के अन्तर्गत जैन धर्म की ऐतिहासिक भूमिका का विवेचन है । तृतीय अध्याय राजस्थान में जैन मत के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों में, विवेच्य काल में हुई टूटन व अलगाववादी पंथों से सम्बन्धित है। चतुर्थ अध्याय में प्रत्येक कालखण्ड के जैन तीर्थों एवं पवित्र स्थानों का उल्लेख है, जिनकी राजस्थान में प्रचुरता रही है। पंचम अध्याय राजस्थान की जैन चित्रकला, जैन मूर्तिकला, रूपप्रद अंकन व स्थापत्य वैभव की शैली का आलोचनात्मक विवेचन है । षष्ठ अध्याय में जैन साहित्य सृजन का स्वरूप, विभिन्न कालखण्डों एवं शताब्दियों में प्रयुक्त भाषानुसार संयोजित है । सप्तम अध्याय, शास्त्र भण्डारों अर्थात् साहित्य के कोषागारों से सम्बन्धित है और अष्टम अध्याय में राजस्थान में जैन धर्म की भूमिका का मूल्यांकन व राजस्थान तथा भारतीय सांस्कृतिक जीवन में इसके योगदान का आकलन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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