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४६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
४. श्रावक वर्ग :
यह वर्ग उक्त तीनों संस्थाओं को पोषित कर उनके वर्चस्व एवं श्रीवृद्धि में हमेशा सहायक रहा । वस्तुतः जैन संघ में यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात रही है कि श्रावक वर्ग परिग्रही होते हुए भी नित्य उपदेश श्रवण के निमित्त आचार्यों के सान्निध्य में जाता रहा । अमूर्तिपूजक पंथ विकसित होने पर भी इस उद्देश्य के लिये उपाश्रयों का सृजन कर लिया गया । श्रावक वर्ग की यह मूल प्रवृत्ति श्लाघ्य ही नहीं, अपितु अन्य धर्मावलम्बियों के लिये भी प्रेरणा का स्रोत रही। श्रावक वर्ग में जैन-अजैन बिना ऊँच-नीच के भेद भाव के सम्मिलित होते रहे हैं। जैन मत के सिद्धान्तों में अन्तनिहित मानवीय भावना, श्रमणों के श्रेष्ठ चरित्र एवं जैनधर्म की अच्छी छवि के कारण पूर्व-मध्यकाल में कई नई जैन जातियाँ और गोत्र अस्तित्व में आये, तथा जैन मत में दीक्षित होकर असंख्य जन समुदाय ने श्रावक धर्मपालन प्रारम्भ किया । (स) राजस्थान में जैन धर्म के योगदान का स्वरूप : १. नैतिक मूल्यों की स्थापना :
जैन मान्यताओं के अनुसार अनैतिकता को जन्म देने वाले-मद्य, मांस, चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और जुआ-इन सात कुव्यसनों का निषेध बताया गया है। जैन साधु अपने जीवन व व्यवहार में इनका पालन कर इनको नित्य स्नेहपूर्वक उपदेशित करते थे और अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों को अनैतिक कृत्यों को त्यागने की प्रेरणा देते थे । स्वाभाविक रूप से जैन साधुओं के उपदेश स्वयं के आचरण की पवित्रता के कारण अधिक प्रभावी होते थे । अतः समाज में नैतिक मूल्यों के उन्नयन में सदैव सहायक रहे और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता बनी रही । सामान्यतः जैन धर्मावलंबियों में आचरण शैथिल्य या चारित्रिक दुर्बलताएँ नहीं होती हैं और कुव्यसनों से दूर रहना उनके संस्कारों में ही अंतर्निहित होता है, अतः बौद्धिक क्षमताओं में भी वे अन्य वर्गों से उच्चतर होते हैं। कुव्यसनों में धन का दुरुपयोग न करने से आर्थिक रूप से भी सम्पन्न होते हैं। समाज के अन्य वर्गों की दृष्टि में जैन समाज सदा से नैतिक मूल्यों का संरक्षक माना जाता रहा है । २. अहिंसा का दर्शन : ___सर्वे भवन्तु सुखिनः', 'जिओ और जीने दो' तथा 'आत्मवतसर्वभूतेषु' आदि अहिंसा मूलक विचार जैन धर्म को बहुमूल्य देन हैं । यद्यपि अहिंसा का दर्शन भारत के अन्य धर्मों ने भी उद्घोषित किया है, किन्तु उसे क्रियात्मक अनुपालन द्वारा अनुकरणीय बनाने का श्रेय जैन धर्म को ही है । मध्यकाल में क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि जैनेतर जातियां अधिकांशतः मांसाहारी थीं। पशुबलि और आखेट स्वाभाविक कर्म थे। किन्तु पूर्व
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