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मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यांकन एवं योगदान : ४६५ आचार्य के उपदेश से ही मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा आदि सम्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । वस्तुतः अपने जीवन की निर्मलता व पवित्रता के कारण ही ये श्रेष्ठी-जनों राजाओं एवं श्रावकों के पूज्य रहे । यद्यपि कभी-कभी महत्वाकांक्षाओं या व्यक्तिगत वर्चस्व हेतु ये संघ को तोड़ कर छोटे पंथ, गण, गच्छ आदि निर्मित करते रहे, किन्तु पृथकत्व का आधार भी हमेशा शास्त्रोक्त नियमों का पालन या च्युति ही होता था, अतः श्रावकों की श्रद्धा कभी भी नहीं डगमगाई । यद्यपि अपवाद जैन संतों में भी हुए हैं किन्तु अपवादों से कभी नियम नहीं टूटते हैं। २. श्रेष्ठी वर्ग :
आर्थिक समृद्धि एवं श्री सम्पन्न श्रेष्ठी वर्ग, जिनमें से कुछ अपने बुद्धि-चातुर्य, कूटनीति एवं अपूर्व स्वामिभक्ति के कारण अप्रतिम राजनीतिज्ञ भी हुए हैं, सदैव जैन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आधार स्तम्भ रहे । विवेच्य काल में ऐतद्संदभित उदाहरण प्रत्येक कालखंड में हैं। राजस्थान की जैन संस्कृति में ऐसे कई श्रेष्ठी हुए, जिन्होंने राजसत्ता को आर्थिक पोषण ही नहीं दिया, अपितु अपनी वीरता व बौद्धिक क्षमताओं से राज्यों को भी सुरक्षित रखा। जैनाचार्यों को स्वयं सम्मान देकर राज्याध्यक्षों व सम्राटों के सम्मुख सम्माननीय बनाया। राजाओं के द्वारा प्रसन्न होने पर अपनी श्रीवृद्धि या स्वार्थ के निमित्त कभी मुंह नहीं खोला, अपितु जैन धर्म के उत्कर्ष, अमारि-घोषणा व तीर्थ रक्षा के लिये ही राजाज्ञाएँ चाहीं। कर्मचन्द्र आदि कई मंत्री ऐसे ही हुए जिन्होंने जैन धर्म के संरक्षण एवं प्रवर्द्धन के लिये राज्यसत्ता को उन्मुख करने के प्रयास किये । जैन संस्कृति की भौतिक उपलब्धियाँ मन्दिर, उपाश्रय, मूर्तियाँ, साहित्य, चित्र, स्मारकादि के परिमाण में वृद्धि मुख्यतः धनिक वर्ग द्वारा ही की गई। इनके द्वारा अधिकाधिक न्यायपूर्वक धनोपार्जन का उपयोग लोकोपकारी कार्यों के निमित्त किया जाता था। ३. मन्दिर एवं उपाश्रय :
जैन संस्कृति में 'मन्दिर' नामक संस्था केवल पूजा या उपासना का केन्द्र ही नहीं अपितु साहित्य-संरक्षण, साहित्य-सृजन, अध्ययन-अध्यापन एवं सामूहिक एकत्रीकरण के द्वारा सामाजिक संगठन का भी प्रेरक हेतु रही । मन्दिरों का यह बहुआयामी आकर्षण श्रावकों को अपनी रुचि के अनुसार किसी न किसी रूप में वहाँ जाने के लिये बाध्य करता रहा। मन्दिरों का सात्विक, आध्यात्मिक, शैक्षिक व पवित्र वातावरण हमेशा व्यक्ति के दुर्विचारों का शमन कर नैतिकता जागृत करता रहा । एक ओर तो कलापूर्ण मन्दिर एवं उपाश्रय श्रेष्ठियों के धन प्रदर्शन के माध्यम बने, वहीं इनकी सांस्कृतिक उपादेयता भी राजस्थान में जैन धर्म के उन्नयन में बड़ी सार्थक रही। जैन मन्दिर साधना केन्द्रों के रूप में समाज के सभी वर्गों का बिना जाति भेद के स्वागत करते रहे । यही वे केन्द्र रहे जहाँ अपरिग्रही साधु, परिग्रही श्रावकों को धर्म की कल्याणकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त करते रहे।
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