________________
जैन तीर्थ : २४१
वल्लभ सूरि के पश्चात् जिनदत्त सूरि का पट्ट समारोह १११२ ई० में यहीं सम्पन्न हुआ। इस काल में ही वादिदेव मूरि ने शास्त्रार्थ में शिवमूर्ति को पराजित किया। यह स्थान १२वीं शताब्दी में दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी भी था। मूलसंघ पट्टावली से ज्ञात होता है कि इस स्थान पर दस उत्तराधिकारी कालक्रम में बने ।२ जब चालुक्य कुमारपाल १२वीं शताब्दी में चित्तौड़ आया, तब किले में दिगम्बर जैनियों की एक समृद्ध बस्ती थी। जब जिनप्रबोध सूरि १२७७ ई० में चित्तौड़ आये, तो राजपुत्र क्षेत्रसिंह, कर्णराज, सभासदों व ब्राह्मणों ने उनका स्वागत किया। देवेन्द्र सूरि के उपदेशों से १२७८ ई० में चित्रकूट के राजा तेजसिंह की रानी जयतल्ला देवी ने पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया। मध्यकाल में जिनभद्र सूरि ने जैन धर्म की महान सेवा की और यहाँ १४ वीं शताब्दी में कई मन्दिर निर्मित करवाये । १४१५ ई० में भट्टारक शुभचन्द्र ने मूलसंघ की चित्रकूट में पुनर्स्थापना की। ___दुर्ग में कई महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिरों का अस्तित्व मध्यकाल में था। "श्रृंगार चंवरी" के नाम से विख्यात मन्दिर को कतिपय इतिहासकारों द्वारा कुम्भा की राजकुमारी के विवाह मंडप की वेदी बताया है, किन्तु मूलतः यह जैन मन्दिर है। मूल रूप से मन्दिर का निर्माण १३वीं शताब्दी में हुआ था तथा यहाँ अष्टापद अथवा सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ रही होंगी। इसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के शासन काल में उनके कोषाध्यक्ष शाह कोला के पुत्र भण्डारी जातीय श्रेष्ठी वेला ने १४४८ ई० करवाया और १४५५ ई० में यहाँ अन्य श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिमाएं स्थापित कराई गई थीं। यह मन्दिर ५ फुट ऊँचे प्रासाद पीठ पर वर्गाकार बना हुआ है । प्रवेश द्वार उत्तर या पश्चिम में है। मन्दिर में गर्भगृह, खेला मण्डप व वेदी है, जो रिक्त है। इसके बगल में ही एक मन्दिर है, जिसमें खुला गर्भगृह और ऊँची चौकी का एक मण्डप है। इसमें भी कोई मूर्ति नहीं है । इनकी बाहरी दीवारों पर तीर्थंकरों एवं शासन देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं।
जैन कीर्ति स्तम्भ के निकटस्थ महावीर प्रासाद का जीर्णोद्धार गुणराज नामक श्रेष्ठी ने महाराणा मोकल के राज्यकाल में १४२३ ई० में प्रारम्भ करवाया जो १४३८ ई० में पूर्ण हुआ। “सोम सौभाग्य काव्य" से ज्ञात होता है कि जीर्णोद्धार के बाद मन्दिर की प्रतिष्ठा, सोम सुन्दर सूरि द्वारा की गई । इस देवालय के सम्बन्ध में रोचक तथ्य यह है कि यह मूलतः दिगम्बर मन्दिर था । महाराणा कुम्भा के समय तक चित्रकूट में दिगम्बर
१. प्रभावक चरित्र, पृ० १७१-१८२ । २. एइ, २१, पृ० ६१ । ३. खबृगु, पृ० ५६ ।। ४. एरिराम्यूअ, १९२३, क्र० ८, पृ० ९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org