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२४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मन्दिर का नाम पहले चूलेश्वर था', जो बिगड़ते-बिगड़ते चंवलेश्वर हो गया। ___अतिशय क्षेत्र पहाड़ी पर है । यहाँ तीन दिशाओं से जाने के मार्ग हैं । पूर्व की ओर २५६ पक्की सोढ़ियाँ हैं। मार्ग में यात्रियों के विश्राम के लिये छत्री, पक्का तिबारा व पानी का कुण्ड भी है। सीढ़ियां चढ़ने पर समतल भूमि है, जहाँ परकोटे से आवेष्टित मन्दिर है। मन्दिर के द्वार के ऊपरी भाग में पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है। मन्दिर में प्रवेश करने पर छोटा चौक है, जिसमें मकान व पश्चिम में एक छतरी में पाषाण के चरण युगल हैं। इसके आगे मंडप है, फिर मोहन गृह है । मोहन गृह के, प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन तीर्थकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । वेदी एक ही है, जिस पर मूलनायक पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । इसके दाँयी ओर एक भव्य चौबीसी है। मन्दिर के निकट ही एक मस्जिद व एक महादेवजी की छतरी है। पहाड़ की तलहटी में एक जैन मन्दिर है, जिसमें पार्श्वनाथ की विशाल अवगाहना वाली खण्डित प्रतिमा है ।। (५०) चित्तौड़ तीर्थ (चित्रकूट) :
अपने सुदृढ़ दुर्ग के लिए विश्वविख्यात चित्तौड़, उदयपुर से १८० कि० मी० उत्तर-पूर्व में है । यह नगर सम्भवतः गुप्तकाल में भी अस्तित्व में था। बाद में यह मोरी राजपूतों की राजधानी बना । पूर्व मध्यकाल में धर्मप्रिय राजपूत शासकों के राज्य में ब्राह्मण, शैव व जैन धर्म की बहुत प्रगति हुई। १२वीं शताब्दी में यह जैन मतावलम्बियों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता था।
पुरातात्त्विक अवशेषों से सिद्ध होता है कि ब्राह्मण धर्म के साथ जैन धर्म भी यहाँ अत्यधिक लोकप्रिय रहा । पाँचवीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैन दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर यहां आये थे।" ८वीं शताब्दी के महान जैन सन्त, हरिभद्र सूरि का कार्य क्षेत्र व जन्म स्थान चित्तौड़ था । ७वीं शताब्दी में कृष्णर्षि ने एक व्यक्ति को साधत्व की दीक्षा दी व बाद में आचार्य बनाया।६ १२वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिनवल्लभ सूरि ने विधि मार्ग के प्रचार के लिये चित्तौड़ को ही अपना मुख्यालय बनाया। उनके उपदेशों से मन्दिर स्थापित किये गये । उन्होंने वीरचत्य के प्रस्तरों पर अपने सारे चित्रकाव्य निर्मित करवाये । चैत्य की दोनों दीवारों पर उनकी "धर्म शिक्षा" और "संघ पटक" भी उकेरे गये। जिन १. भादिजैती, पृ० ८६ । २. वही, ८७ । ३. एसिटारा, २२४ । ४. गौसी, ७६, पृ० १५६ । ५. प्रभावक चरित्र, पृ० २४ । ६. उपकेश गच्छ प्रबन्ध, दृ० ६१ । ७. पीटर्सन रिपोर्ट, १८८३-८४, पृ० १५२ ।
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