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३६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, सिन्ध व पंजाब था। ये अपने समय के सर्वतोमुखी व श्रेष्ठ विद्वान थे। १५९२ ई० में कश्मीर विजय के समय सम्राट अकबर के सम्मुख इन्होंने "राजानो ददते सौख्यम" चरण के प्रत्येक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ अर्थात् ८ अक्षरों के ८ लाख अर्थ करके "अष्टलक्षी" ग्रन्थ रचा । इन्होंने लगभग ५०० छोटीबड़ी रचनाएँ की हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं-व्याकरण ग्रन्थों में "सारस्वत वृत्ति", "सारस्वत रहस्य", "लिंगानुशासन अवणि", "अनिटकारिका", "सारस्वतीय शब्द रूपावली" आदि; अनेकार्थी साहित्य में-"अष्टलक्षी", "मेघदूत प्रथम पद्यस्थ त्रयो अर्थाः"; काव्य ग्रन्थ एवं टीकाओं में- "जिनसिंह सूरि पदोत्सव काव्य", "रघुवंश टीका", "कुमारसम्भव टीका", "मेघदूत टीका", "शिशुपाल वध तृतीय सर्ग टीका", "रूपक माला अवचूरि", "ऋषभ भक्तामर'' आदि; छन्द एवं न्याय के ग्रन्थों में"भावशतक", "वाग्भटालंकार टीका", "वृत्तरत्नाकर टीका", "मंगल पाद" आदि; आगमिक एवं स्तोत्र साहित्य में "कल्पसूत्र टीका", "दशवकालिक सूत्र टीका", "नवतत्व प्रकरण टीका", "समाचारी शतक", "विशेष संग्रह', "गाथासहस्त्री', "सप्तस्मरण टीका" आदि ।
६८. महोपाध्याय गुणविनय ( १५५८ ई०-१६१८ ई० ):-ये खरतरगच्छीय क्षेमकीति शाखा में जयसोमोपाध्याय के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र अधिकांशतः राजस्थान रहा । इन्होंने सम्राट जहाँगीर से “कविराज" की उपाधि प्राप्त की थी। इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ-"खंडप्रशस्ति टीका” १५९१ ई०२, "नेमिदूत टोका" १५८७ ई०, “दमयन्ती कथा चम्पू टीका" १५८९ ई०, "रघुवंशटीका" १५८९ ई०, "वैराग्य शतक टीका" १५९० ई०, “सम्बोध सप्तति टीका" १५९४ ई०, “कर्मचन्द्र प्रबन्ध टीका" १५९९ ई०, 'लघुशांतिस्तव टीका" १६०२ ई०, “शीलोपदेशमाला लघवत्ति" आदि टीका ग्रन्थ तथा अनेकार्थी ग्रन्थों में--"सव्वत्थशब्दार्थ समुच्चय", संग्रह ग्रन्थ में-"हुण्डिका" १६०० ई० आदि है।
६९. बल्लभोपाध्याय ( १५६३ ई०-१६३० ई०)-ये खरतरगच्छीय ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र जोधपुर, नागौर, बीकानेर व गुजरात रहा । ये महाकवि, बहश्रुतज्ञ, व्याकरण कोश के मूर्धन्य विद्वान् और सफल टीकाकार थे। इनकी ८ मौलिक कृतियाँ निम्न हैं-"विजयदेव महात्म्य काव्य", "सहस्त्र दलकमल
१. राजैसा, पृ० ६८-६९ । २. विनय सागर द्वारा सम्पादित एवं राज० प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से
प्रकाशित । ३. विनय सागर द्वारा सम्पादित, सुमति सदन कोटा से प्रकाशित । ४. राजैसा, पृ० ६८-६९ ।
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