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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६९
दक्षिण में जाते समय रखा
कोटा राज्य के शाहबाद कस्बे का नाम औरंगजेब ने था । अपने एक दिन के पड़ाव में ही उसने इस क्षेत्र के कई जैन व हिन्दू मन्दिर ध्वस्त किये एवं आगरा की जामा मस्जिद के प्ररूप पर ध्वंस से प्राप्त सामग्री से एक मस्जिद बनवाई | यह मस्जिद अभी भी मौजूद है, जिसमें प्रयुक्त सामग्री स्पष्ट रूप से मन्दिरों की ही है ।
(२) मुस्लिम शासकों की जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता :
११वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य जैन धर्म के कतिपय प्रतिमानों को मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये जाने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं, किन्तु सभी मुस्लिम शासक अमानवीय या धर्मान्ध नहीं थे । कुछ मुस्लिम शासकों ने जैन जैनाचार्यों को अत्यधिक सम्मान प्रदान कर अपनी सहिष्णुता का भी परिचय दिया ।
धर्म के महान् आदर्शों व विद्वान् धर्म - गत- उदारता और पर-धर्म
अलाउद्दीन खिलजी वैसे तो एक कट्टर धर्मान्ध शासक था, फिर भी अपने राज्यकाल में दिगम्बर आचार्य माधव सेन की विद्वत्ता, तपस्या एवं चमत्कार की ख्याति सुनकर उसने नगर श्रेष्ठी पूर्ण चन्द्र अग्रवाल के माध्यम से उनको दरबार में आमंत्रित किया । माधवसेन ने दरबार में हुये शास्त्रार्थ में बादशाह के दो पंडितों राधो और चेतन को हराया एवं इस प्रकार ऐसे कट्टर मुस्लिम बादशाह के शासनकाल में भी जैनधर्म की प्रभावना स्थापित की। इसी बादशाह के शासनकाल में नन्दिसंघ के आचार्य प्रभाचन्द ने दिल्ली में अपने संघ की गादी स्थापित की थी । १३१८ ई० में कुतुबुद्दीन से तीर्थं का निर्विरोध फरमान प्राप्त कर जिनचन्द्र सूरि ने संघ सहित तीर्थ यात्रा की थी । गयासुद्दीन तुगलक ने १३२३ ई० में तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त कर जिन कुशल सूरि संघ सहित तीर्थयात्रा को गये थे । ३ १४४६ ई० में सोमधर्मं रचित " उपदेश सप्ततिका" में जिनप्रभ सूरि द्वारा बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक को प्रतिबोध एवं कई चमत्कारों को दिखाने का विवरण है । १४६४ ई० में तपागच्छीय शुभशील गणी के ‘“प्रबन्ध पंचशती” में भी एतद्- संदर्भित विवरण है, किन्तु महत्वपूर्ण घटना का समकालीन विवरण “ विविध तीर्थ - कल्प" के कनयनयनीय महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है। इसके अनुसार जिनप्रभ सूरि ने मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा सम्मान प्राप्त किया था । उन्होंने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुल्तान से प्राप्त कर दिल्ली के जैन मन्दिर में स्थापित करायी थी । इसके बाद मुहम्मद तुगलक ने
१. वीशाप्रआ, पृ० ११६ ।
२. जिनचन्द्र स्मृग, पृ० २९ ।
३. वही, पृ० ३० ।
४. सोमधर्म, उपदेश सप्ततिका, तृतीय गुरूत्वाधिकार, पंचम उपदेश ।
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