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________________ ७० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इनके शिष्य जिनदेव सरि को "सुरजान सराय" दी थी, जिसमें ४०० श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाये गये व उसी में उक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी की गई ।' "कनयनयनीय-महावीर-प्रतिमा-कल्प" के लिखने वाले "जिनसिंह सूरि शिष्य" बतलाये गये हैं, अतः जिनप्रभ सूरि या उनके किसी गुरु भाई ने इस कल्प की रचना की है। १३२८ ई० में हाँसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी बनाकर इस प्रतिमा को दिल्ली में तुगलकाबाद के शाही खजाने में रख दिया था। विहार करते हुये जिनप्रभ सूरि दिल्ली आये तथा राज्यसभा में पंडितों की गोष्ठी में सुल्तान को प्रभावित किया व प्रतिमा पुनः प्राप्त की । तुगलक ने अर्द्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्ठी की । प्रातः सन्तुष्ट सुल्तान ने १००० गायें, विपुल द्रव्य, वस्त्र, चन्दन, कर्पूरादि भेंट में देने चाहे, जिन्हें मुनि जी ने अस्वीकृत कर दिया। सुल्तान ने महोत्सव के साथ उन्हें पौषधशाला पहुँचाया। समय-समय पर सूरि एवं उनके शिष्य जिनदेव सूरि की विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर सुल्तान ने शत्रुजय, गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिये फरमान जारी किये । भट्टारक प्रभाचन्द्र (१२५७ ई०-१३५१ ई०) ने फिरोजशाह तुगलक का प्रारम्भिक शासन देखा था। जैन पारम्परिक अनुश्रुतियों के अनुसार इनके चमत्कार की कई अविश्वसनीय घटनाएँ ज्ञात होती हैं। फिरोजशाह तुगलक के प्रमुख मंत्री, चाँदा गूजर पापड़ीवाल ने दिल्ली में प्रतिष्ठा समारोह को सम्पन्न करवाने के लिये भट्टारक प्रभाचंद्र को निमन्त्रित किया जो बड़े चमत्कारिक रूप से दिल्ली पहुँचे और उनका भव्य स्वागत हुआ। स्वयं बादशाह उन्हें लिवाने आया, दरबारी पण्डित राधो व चेतन ने ईर्ष्या से प्रेरित होकर उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहँचाने के लिये पालकी को कीलना, कमण्डल में मदिरा बताना, आदि दुष्चक्र किये, जिनसे आचार्य चमत्कारिक ढंग से निपटे । उन्होंने न केवल शास्त्रार्थ में दोनों पण्डितों को हराया, अपितु अमावस्या को भी चन्द्रोदय सिद्ध कर दिया। उनके सुयश के कारण बेगमों ने भी उनके दर्शन की उत्कट इच्छा बादशाह के सामने प्रकट की। आचार्य ने देश-कालानुसार लंगोट पहनकर हरम में जाकर बेगमों को प्रबोध प्रदान किया। उक्त दोनों धर्मान्ध बादशाहों के काल की ये पारम्परिक अतिरंजित घटनायें अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय नहीं मानी जा सकतीं, फिर भी यह सुस्पष्ट है कि उस काल खंड में भी जैनाचार्यों का सम्मान होता था। मुगल सम्राटों में अकबर ही एकमात्र शासक था, जिसके शासन में जैनाचार्यों का १. जिनचन्द्रस्मृग, पृ० ३४ । २. वही, पृ० ३५। ३. वीशाप्रआ, पृ० १२२-१२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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