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जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७१
अत्यधिक सम्मान हुआ और उसके स्वयं के जीवन पर भी जैन धर्म के अहिंसात्मक दर्शन का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। १५६८ ई० में उसने जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ कराया था।' नागौर के १५५२ ई० के फारसी शिलालेख में भट्टारक कीर्तिचन्द्र की पौशाल, जो पहले बन्द कर दी गई थी, को पुनः चालू करने का उल्लेख है । इससे मुगल बादशाह की उदारता प्रकट होती है । अकबर के काल के सबसे महत्त्वपूर्ण जैन सन्त तपागच्छीय हीरविजय सूरि थे । १५८२ ई० में गुजरात के गवर्नर के माध्यम से इनको निमन्त्रित किया गया। जैन परम्परानुसार ये पैदल ही फतहपुर सीकरी की तरफ रवाना हो गये तथा वहाँ मुस्लिम विद्वान् अबुल-फजल से विचार-विनिमय के उपरान्त सम्राट अकबर से मिले । सम्राट ने इनका भव्य एवं हार्दिक स्वागत किया। शत्रुञ्जय पहाड़ी पर आदिनाथ मन्दिर के पूर्वी प्रवेश द्वार के बरामदे में उत्कीर्ण १५९३ ई० के हेमविजय लिखित अभिलेख से ज्ञात होता है कि हीरविजय ने १५९२ ई० में बादशाह को एक आदेश जारी करने को प्रेरित किया, जिसमें छः महीने जीवहिंसा को बन्द करने, मृत व्यक्ति की सम्पत्ति को जब्त करने की प्रथा को समाप्त करने, सजिजि कर एवं शुल्क, बन्दियों की रिहाई, शत्रुञ्जय तीर्थ को जैनियों को भेंट देने आदि के आदेश जारी करवाये थे । इस समय फतहपुर सीकरी में मछली मारने का भी निषेध हो गया था।
इनके अगाध ज्ञान, गम्भीर चिन्तन तथा साधु स्वभाव से प्रभावित होकर अकबर ने वर्ष में कुछ दिनों के लिये स्वयं मांस भक्षण बन्द कर दिया। ये मुगल राजदरबार में २ वर्ष रहे तथा अकबर ने इन्हें "जगतगुरु" की उपाधि प्रदान की । अबुल-फजल ने अकबर के दरबार के सर्वोच्च २१ विद्वानों में इन्हें भी सम्मिलित किया है, जिनके लिये कहा जाता था कि ये लोग "दोनों लोकों का रहस्य" जानते हैं। जालौर के महावीर मन्दिर के १६२४ ई० के लेख से भी हीरविजय सूरि के सन्दर्भ में उक्त तथ्यों की पुष्टि होती है । पाली की महावीर प्रतिमा पर अंकित १६२९ ई० के लेख" और नाडलाई की आदिनाथ मूर्ति के १६२९ ई० के लेख में भी अकबर बादशाह द्वारा हीरविजय को "जगतगुरु" का विरुद प्रदान करने का उल्लेख है । अकबर से सम्मान प्राप्त होने पर
१. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । २. एनुअल रिपोर्ट, इए, १९५२-५३, क्र० सी-१०७ । ३. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । ४. नाजैलेस, १, क्र० ९०५ । ५. वही क्र० २२९, ८२६, ८२७ आदि । ६. राइस्त्रो , पृ० १८० ।
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