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७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
गुजरात में गवर्नर आजम खान, जामनगर के जाम साहिब, खान मुहम्मद आदि कई मुस्लिम अधिकारी इनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने आये ।
इनके पश्चात् कुछ अन्य जैनाचार्यों ने भी सम्राट् से भेंट की, जिनमें शांतिभद्र, विजयसेन सूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय, हर्ष सूरि और जयसोम उपाध्याय प्रमुख थे । कुछ उच्चकोटि के जैनाचार्य तो दरबार में स्थायी रूप से रहने लगे थे।' आचार्य जिनहंस सूरि के बारे में ऐसा उल्लेख है कि इन्होंने आगरा में भव्य राजकीय स्वागत के उपरांत, अपनी दैविक शक्ति से बादशाह का मनोरंजन करके ५०० कैदियों को छुड़वा कर 'अभय घोषणा" करवायी थी।
खरतरगच्छ के जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि की विद्वत्ता एवं साधु स्वभाव की महिमा सुनकर अकबर ने मन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत को आदेश देकर आचार्य जी को लाहौर पधारने का निमन्त्रण, खंभात प्रेषित किया था। आचार्यजी वृद्धावस्था के बावजूद पदविहार करते हुये, सिरोही होकर जालौर पहुँचे। बादशाह की ओर से शीघ्रता का फरमान पाकर इन्होंने महिमराज वाचक के साथ ६ शिष्यों को आगे भेजा तथा स्वयं चातुर्मास समाप्त होने पर पाली, सोजत, मेड़ता, नागौर, रिणी होते हुए, ३१ साधुओं सहित लाहौर पहुँचे, जहां बादशाह ने इनका भव्य स्वागत किया। सम्राट् इनके धर्मोपदेशों से बहुत प्रभावित हुआ और प्रतिदिन महल में बुलवाकर उपदेश श्रवण प्रारम्भ किया। सम्राट ने इनको स्वर्ण मुद्राएँ आदि भेंट भी देनी चाहीं, जो निस्पृह आचार्य ने अस्वीकार कर दी। शहजादा सलीम के मूल नक्षत्र में पुत्री उत्पन्न होने पर, ज्योतिषियों द्वारा इसे अशुभ और पिता के लिये अनिष्टकारी बताये जाने पर, इन्होंने जैन विधि से ग्रहशांति एवं अनुष्ठान करने का, मन्त्री कर्मचन्द्र को आदेश दिया । मन्त्री ने सोने, चाँदी के घड़ों में, १ लाख रुपये व्यय करके, वाचक महिमराज के द्वारा, सुपार्श्वनाथ मन्दिर में, शान्ति-स्नान करवाया। मंगल दीप व आरती के समय सम्राट् व शहजादा सलीम ने स्नान जल को नेत्रों से लगाया तथा अन्तःपुर में भी भेजा, और प्रभु भक्ति में १०,००० रुपये भेंट किये। सम्राट अकबर सूरि जी को “वृहद गुरु" नाम से पुकारता था। __नौरंगखान द्वारा द्वारिका के जैन मन्दिरों के विनाश की सूचना पाकर इन्होंने सम्राट् को तीर्थ-महात्म्य बताते हुए, उनकी रक्षा का उपदेश दिया। सम्राट ने तुरन्त फरमान जारी करके समस्त जैन तीर्थ मन्त्री कर्मचन्द्र के अधीन कर दिए। गुजरात के सूबेदार आजम खान को तीर्थ रक्षा के लिए सख्त हुक्म भेजा गया।
काश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने सूरिजी को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और आषाढ़ शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को अभय
१. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । २. खरतरगच्छ का इतिहास, १९० ।
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