SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७३ दान देने के लिये बारह फरमान लिख भेजे' । इसके अनुसरण में सभी राजाओं ने अपनेअपने राज्यों में दस, पन्द्रह, बीस दिन, महीने या दो महीने तक के लिये जीवों के अभयदान की उद्घोषणायें की। सम्राट् ने काश्मीर प्रवास में धर्म गोष्ठी व जीव दया प्रचार के लिये, वाचक महिमराज को भेजने की प्रार्थना की। मंत्रीश्वर एवं श्रावकों के भी साथ में होने के कारण सूरि जी ने मुनि हर्ष विशाल, पंचानन महात्मा, समय सुन्दर आदि के साथ वाचक जी को भी भेजा । मार्ग में एक विशाल सभा में समय सुन्दर ने "राजानौ ददते सौख्यम" वाक्य का विभिन्न अर्थों वाला 'अष्टलक्षी ग्रन्थ' पढ़कर सुनाया। सम्राट् ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित करके प्रमाणीभूत घोषित किया। आचार्यों के उपदेशों के सुप्रभाव से मार्गवर्ती तालाबों के जलचर जीवों का मारना निषिद्ध हुआ। सम्राट्, काश्मीर यात्रा के दौरान, साधुओं के कठिन जीवन को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। विजय प्राप्त करने पर सम्राट् ने श्रीनगर में ८ दिन तक अमारि उद्घोषणा करवाई । १५९२ ई० में लाहौर लौटने पर सम्राट् ने मंत्री कर्मचन्द्र से परामर्श करके महिमाराज वाचक को "सिंह सूरि" की उपाधि तथा बड़े गुरु जिनचन्द्र सूरि को "युग प्रधान" की उपाधि प्रदान की, जिसके उपलक्ष्य में कर्मचन्द्र ने विशाल महोत्सव आयोजित किया। सम्राट ने लाहौर में तो अमारि घोषणा की ही, किन्तु सूरिजी के उपदेशों के सुप्रभाव से, खम्भात के समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया। युग प्रधान गुरु के नाम पर मंत्री कर्मचन्द्र ने सवा करोड़ रुपये का दान किया। राजा राजसिंह ने इस शुभ अवसर पर सूरि जी को आगमादि अनेक ग्रन्थ भेंट किये, जिन्हें बीकानेर ज्ञान भण्डार में रखा गया । १५९४ ई० में सूरि जी ने अकबर को निरन्तर धर्मोपदेश देने के लिये चातुर्मास लाहौर में ही व्यतीत किया। अभिलेखीय प्रमाणों से ज्ञात होता है कि जिनचन्द्र सूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर, सम्राट ने कुल मिलाकर वर्ष में छः माह अपने राज्य में जीव हिंसा निषिद्ध की; सर्वत्र गोवध बन्द कर, गौरक्षा की; एवं शत्रुजय तीर्थ को करमुक्त किया । अनुश्रुतियों के अनुसार सम्राट् के आग्रह से इन्होंने पाँच नदियों के पाँच पीरों, मणिभद्र, यक्ष, खोडिया, क्षेत्रपाल आदि को भी वश में किया था। जहाँगीर की आत्मजीवनी, विन्सेंट ए० स्मिथ, पुर्तगाली यात्री पिन हेरो, ईश्वरी प्रसाद आदि के उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनचन्द्र के सम्पर्क से अकबर बहुत दयालु हो गया था। सम्राट् के प्रतिष्ठित दरबारी व्यक्तियों जैसे-अबुल फजल, आजमखान, खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी का अत्यधिक प्रभाव था। सम्राट अकबर विजय सेन सूरि से भी अत्यधिक प्रभावित था और उसने उन्हें भी 'जगतगुरु' की उपाधि १. जिनचन्द्रस्मृग, पृ० ४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy