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________________ ७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म प्रदान की थी। १६२९ ई० के, पाली की महावीर प्रतिमा पर अंकित लेख में, अकबर के द्वारा विजयसेन सूरि को जगतगुरु-विरुद धारक वर्णित किया गया है।' इस प्रकार जैन मुनियों के उपदेशों का अकबर के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा । उसने शिकार खेलना एवं मांस खाना भी लगभग बन्द कर दिया । निषिद्ध दिनों पर पशु-पक्षियों का वध करने पर मौत की सजा देने का प्रावधान रखा । इन आज्ञाओं का कठोरता पूर्वक पालन करने के लिये समस्त अधीनस्थ अधिकारियों को फरमान जारी किये गये थे । जहाँगीर की दष्टि में भी जिनचन्द्र सूरि का बहुत उच्च स्थान था । १६११ ई० में दर्शनी के दुराचरण से क्रुद्ध होकर जहाँगीर ने न केवल उसे ही देश से नहीं निकाला, अपितु जैन पंथ के अन्य लोगों को भी राज्य से बाहर जाने का आदेश दिया। इससे जैन धर्म के सभी घटकों में भय व्याप्त हो गया। जब यह समाचार जिनचन्द्र सूरि तक पहुँचा तो वे पाटण से आगरा आकर जहाँगीर से मिले। धर्म पर लम्बे वाद-विवाद के उपरान्त सूरि जी बादशाह से आदेश वापस लेने में सफल हुये। १६१२ ई० का चातुमसि सूरिजी ने आगरा में ही व्यतीत किया, जिसमें सूरिजी का बादशाह जहाँगीर से अच्छा सम्पर्क रहा । शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्त कर इन्होंने "सवाईयुग-प्रधान' भट्टारक नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। जहाँगीर पर जिनसिंह सूरि का भी अच्छा प्रभाव था । इनकी अनुनय पर बादशाह ने सभी जीवित प्राणियों के प्रति सुरक्षा का आश्वासन दिया। बादशाह ने इनको "युग प्रधान" की उपाधि भी प्रदान की । १६२४ ई० में श्रीसार रचित “जिनराज सूरि रास" में स्पष्ट उल्लेख है कि जहाँगीर इनसे मिलने के लिये बहुत उत्सुक था और उसने इन्हें निमंत्रित करने के लिये बीकानेर एक अधिकारी भी भेजा था। अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि तपागच्छीय विजयदेव सूरि से जहाँगीर बहुत अधिक प्रभावित था और उसने उन्हें “महातपा" को उपाधि प्रदान की थी। १६२९ ई० के नाडोल के लेख में विजयदेव सूरि को जहांगीर द्वारा "महातपा" की उपाधि देने का उल्लेख है। इसी प्रकार नाडलाई के १६२९ ई० के आदिनाथ मन्दिर की मूर्ति के छः पंक्तियों वाले लेख तथा १६२९ ई० के जालौर के, जोधपुर के गजसिंह के शासनकाल में रचित लेख में भी महातपा विजयदेव सूरि का उल्लेख है । उपाध्याय गुणविजय से भी जहाँगीर अत्यधिक प्रभावित था। इनकी असाधारण काव्यप्रतिभा से प्रभावित होकर सम्राट ने इनको कविराज की उपाधि प्रदान की थी। यह १. नाजैलेस, १, क्र० २२९, पृ० २०३ । २. वही, क्र० ८३७, पृ० २०७ । ३. राइस्त्रो, पृ० १८० । ४. नाजैलेस, १, क्र० ८३७, पृ० २०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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