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६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
स्तवन में तुरासानखान द्वारा सिरोही में किये गये प्रतिमाओं के विध्वंस का जीवंत चित्रण है।
मध्यकाल में राजस्थान के कुछ नगरों जैसे-नागौर, बयाना, जालौर, सांचौर, डीडवाना, नरहद, चातसू आदि में मुस्लिम गवर्नरों का शासन था। अतः स्वाभाविक रूप से इनके शासन के समय में प्राचीन मन्दिरों को क्षति पहुंची ही होगी। शेरशाह ने अपने मालवा अभियान के दौरान कोषवर्धन (शेरगढ़) के जैन मन्दिरों को व नगर को ध्वस्त ही नहीं किया, अपितु इसका नाम तक परिवर्तित कर दिया। अकबर और औरंगजेब के आक्रमणों के मध्य विध्वंस लीला से चित्तौड़ के धार्मिक प्रतिमान भी प्रभावित हुये थे। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने तो अटरू, रामगढ़, बघेरा, बयाना आदि का निर्दयतापूर्वक ध्वंस किया था।
चित्तौड़ से प्राप्त १४३८ ई० की "महावीर प्रासाद-प्रशस्ति" में गुहिलोत हम्मीर व मुस्लिम सेनाओं के मध्य हुये युद्ध का वर्णन मिलता है।' इस युद्ध में अलाउद्दीन की सेनाओं ने कई हिन्दू एवं जैन मन्दिरों को नष्ट किया था, जिसके स्पष्ट प्रमाण उसके पुत्र एवं मेवाड़ के गवर्नर खिज्र खाँ द्वारा बनवाये गये गम्भीरी पुल के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री व १२६७ व १२७३ ई० के शिलालेख हैं । इस आक्रमण के दुष्प्रभावों से दिगम्बर जैन कीर्ति स्तम्भ एवं उसके सामने का मन्दिर भी प्रभावित हुआ था। केसरियाजी व धुलेव के मन्दिर को भी मुस्लिम सेनाओं ने क्षति पहुँचायी थी, यह तथ्य १३७४ ई० के जीर्णोद्धार सम्बन्धी लेख से स्पष्ट है ।२
रणकपुर मन्दिर के अभिलेख भी विभिन्न विध्वंसों की जानकारी प्रदान करते हैं। १५५४ ई० में निर्मित मण्डप, ३६ वर्ष उपरान्त ही, १५९१ ई० में, उस्मानपुर के उसी परिवार के द्वारा पुननिर्माण करवाया गया था। इससे स्पष्ट है कि अकबर का राज्यकाल भी लूटपाट एवं विध्वंस से एकदम अछूता नहीं था। १६२१ ई० में श्रेष्ठी वीरद ने भी कुछ पुननिर्माण करवाया था। १६११ ई० में राणा अमरसिंह के काल में मेवाड़ और मुगलों के बीच रणकपुर में हुये युद्धों में भी मन्दिर के कतिपय भाग ध्वस्त हुये थे।
फारसी स्रोतों के अनुसार मालवा और गुजरात के सुल्तानों ने भी १५वीं व १६वीं शताब्दी में मेवाड़ व दक्षिणी राजस्थान में विध्वंस लीला मचाई थी। देवकुलपाटक, नागदा, सिरोही, आबू, जावर व हाड़ौती के मन्दिर इनके द्वारा नष्ट किये गये ।।
१. जबाबाराएसो, २३, पृ० ५० । २. मरूभारती, अग्रवाल द्वारा सं० । ३. प्राजैलेस, २, क्र० ३०८, ३०९ । ४. जैरा, पृ० ३२।
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