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जैन तीर्थ : २०३
कई आयोजन होते रहने का वर्णन मिलता है । ११६८ ई० में जिनचन्द्र सूरि यहाँ श्रावकों में विविध प्रकार से विधि मार्ग का प्रचार करने आये ।
जालौर साहित्यिक केन्द्र भी रहा । उद्योतन सूरि ने वीरभद्र और हरिभद्र से शिक्षा प्राप्त की व ७७८ ई० में " कुवलयमाला” की रचना की । ९५३ ई० में जिनेश्वर सूरि ने हरिभद्र सूरि के " अष्टक संग्रह " पर टीका लिखी । उनके बड़े भाई बुद्धिसागर : ने “पंचग्रंथी व्याकरण यहीं पर लिखी । 2 । आसिग ने १२०० ई० के आसपास " जीवदयारास" और " चन्दनबाला रास” की रचना की। जिनेश्वर सूरि ने स्वरचितः "श्रावक-धर्माविधि" नामक संस्कृत रचना पर १२६० ई० में जालौर में टीका लिखी उदयसिंह का मंत्री यशोवीर, अपने समय का उद्भट एवं बहुश्रुत विद्वान् था । सोमेश्वर: ने इन्हें काव्य प्रतिभा में माघ और कालिदास से भी बढ़-चढ़ कर बताया है ।" वह न केवल कवि, अपितु कवियों, पंडितों एवं विद्वानों का संरक्षक भी था । उसकी कला मर्मज्ञता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने आबू में वस्तुपाल निर्मित लूणवसहि मन्दिर के निर्माण में १४ खामियां निर्दिष्ट की थीं । जिनभद्र सूरि ने १४वीं शताब्दी में अन्य स्थानों के साथ जालौर में भी शास्त्र भण्डार स्थापित किया । मध्यकाल में जैन विद्वानों ने पुरानी हिन्दी में रचनाएँ कीं । धर्म समुद्र गणी ने १५१० ई० में "सुमित्र कुमार रास" की रचना की ।" सांसा ने १५८२ ई० में " कवि विल्हण पंचाशिका चौपाई९, १५९४ ई० में " भोज प्रबन्ध चौपाई १० और १६१८ ई० में "भावषट् - त्रिशिका ” की रचना यहीं पर की । ११ १६१२ ई० में दामोदर ने "मदन कुमार
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रास १६३७ ई० में समय सुन्दर ने “व्रतरत्नाकरवृत्ति " ३, १६७८ ई० में धर्मवर्द्धन
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१. खबगु, पृ० ५०-५१ ।
२. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पू० १८८ ।
३. भारतीय विद्या, ३, पृ० २०१ ।
४. जैसास, पृ० ४१२ ।
५. कीर्ति कौमुदी, १ २६ ।
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६. जैन तीर्थं सर्व संग्रह, पृ० १९० ।
७. जैसप्र १६, पृ० १६ ।
८. जैगुक, १, पृ० ११७ ।
९. वही, २, पृ० ८०१ ।
१०. वही, पृ० ९०६ ।
११. अभय जैन ग्रन्थालय, ग्र० सं० ८०८९ ।
१२. जैगुक, २, पृ० ९०६ ।
१३. वही, १, पृ० ३७४, ३८९ ।
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