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________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८१ विकृति होने पर ११६२ ई० के पश्चात् मठवास चालू किया हो और उनमें रहने वाले मठवासी भट्टारक ही कहे जाने लगे हों। राजस्थान में भट्टारक कई गांवों और उद्यानों के स्वामी होते थे। वे मन्दिरों का पुननिर्माण करवाते और धर्मशालायें बनवाते थे, यहाँ तक कि अन्य मुनियों को भोजनादि भी देते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि चैत्यवासी होने के बावजूद प्रारम्भिक भट्टारक नग्न ही रहते थे। सम्भवतः श्वेताम्बर मुनियों से अपनी पृथकता सिद्ध करने के लिये यह आवश्यक भी था। वर्तमान समय में भट्टारकों में केवल भोजन करते समय वस्त्र उतारने की परम्परा है। शेष समय वे वस्त्र धारण किये हुये रहते हैं । स्पष्ट है कि भूतकाल में वे नग्न ही रहते थे व वस्त्र धारण की परम्परा पश्चात्वर्ती है । १६वीं शताब्दी के भट्टारक श्रुतसागर लिखते हैं कि कलिकाल में यतियों को नग्न अवस्था में देखकर मुसलमानों ने उनके साथ दुर्व्यवहार प्रारम्भ किया, इसलिये मंडपदुर्ग में बसंतकीर्ति ने निर्देश दिये कि चर्या (भिक्षा के लिए जाना) के समय सन्तों को अपना शरीर चटाई या अन्य किसी चीज से ढक लेना चाहिए । मूल संघ की पट्टावली में चित्तौड़ के भट्टारकों के नाम हैं। उनमें से एक बसंतकीर्ति के समय में (१२०७ ई०) मुसलमानों का अत्यधिक भय था। १३वीं शताब्दी और उसके पश्चात् से कुछ दिगम्बर सन्त बाहर जाते समय चटाई या अन्य चीजों का प्रयोग नग्नता को ढकने के लिये करने लगे। धर्म शासन में भट्टारक ऐसे अध्यात्म गुरु थे, जिनके अधीन बहुत से पंडित और आचार्य थे। ये श्रावकों से विभिन्न तरीकों से धन वसूल करते थे और सुख सुविधायें भोगते थे। इनके पास संघ की प्रशासनिक शक्तियाँ होती थीं तथा वे आचार्यों और पंडितों की नियुक्ति, विभिन्न स्थानों पर धार्मिक वृत्तियों को संपन्न करने के लिए करते थे । (ब) भेद एवं उपभेद : ८वीं से १८वीं शताब्दी तक जैन मत कई छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त होता रहा । शास्त्र सम्मत व्याख्याओं तथा व्यक्तिगत नाम और प्रसिद्धि के आधार पर समयसमय पर विभिन्न पंथ एवं मत अस्तित्व में आते रहे। इनमें सामंजस्य बनाये रखने वाला कोई केन्द्रीय संगठन जैन संघ में नहीं था। संघ व गण मूलतः राजनीतिक शब्द हैं । महावीर का जन्म गणतांत्रिक वातावरण में होने के कारण जैन धर्म में संघ, गण आदि अस्तित्व में आये । वृहत् संख्या में संघों एवं गच्छों का अस्तित्व इस बात का १. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, २, पृ० ६२८ । २. जैसाआई, पृ० ३६३ । ३. इए, २०, पृ० ३४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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