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८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
का निर्माण करवाया था। हेमतिलक सूरि ने गुरु-भक्ति के कारण १३८९ ई० में वरमाण में मन्दिर का रंगमण्डप निर्मित करवाया था। १३९७ ई० में वाचक सोम प्रभसूरि, जो पिप्पलाचार्य गच्छ के थे, ने अजारी में सुमतिनाथ की प्रतिमा निर्मित करवाई थी । वीरप्रभ सूरि ने वीरवाड़ा गाँव में १४१८ ई० में मण्डप निर्मित करवाया था। १४६४ ई० में काछोलीवाल गच्छ के विजयप्रभ सूरि ने सिरोही में अजितनाथ के मन्दिर में गुणसागर सूरि की स्मृति में देवकुलिका का निर्माण करवाया ।' भद्रेश्वर सूरि ने जीरापल्ली में आदिनाथ मन्दिर में तिलकसूरि की स्मृति में देवकुलिका बनवाई। काछोलीवाल गच्छ के उदयवर्द्धन सूरि ने सिरोही में देवकुलिका बनवाई थी। नानक गच्छ के पार्श्वदेव सूरि ने अपने शिष्य वीरचन्द्र के साथ बिलाड़ा में "लगिका" निर्मित करवाई थी। इस प्रकार चैत्यवास का अस्तित्व राजस्थान में १५वीं शताब्दी तक रहा। उसके बाद यह यति समाज में परिवर्तित हो गया । (२) दिगम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा :
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की तरह दिगम्बर सम्प्रदाय में भी चैत्यवासी प्रथा प्रवर्तन में रही। भट्टारकों की गादियाँ चैत्यवास और मठवास की ही प्रतिनिधि कही जा सकती हैं । दिगम्बर जैन साहित्य में चैत्यवासी प्रथा के प्रारम्भ होने के निश्चित समय का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु ८वीं शताब्दी में यह दक्षिण में अस्तित्व में थी। आचार्य कुन्दकुन्द के "लिंगपाहुड" से प्राप्त सूचनानुसार पता चलता है कि उस समय ऐसे भी जैन साधु थे, जो गृहस्थों के विवाह जुटाते और कृषि-कर्म, वाणिज्य आदि हिंसा कर्म करते थे। चैत्यवास के समर्थक मुनि शिवकोटि ने अपनी "रत्नमाला" में लिखा है कि उत्तम मुनियों को कलिकाल में वनवास नहीं करना चाहिये । जिन मन्दिर और विशेषकर ग्रामादि में रहना ही उनके लिये उचित है । यह भी अनुमान है कि दिगम्बर मुनियों ने ४१५ ई० में वनवास छोड़कर "निसीहि' आदि में रहना प्रारम्भ किया हो एवं उसमें
१. अप्रजैलेस, क्र० ११९ । २. वही, क० ११३ । ३. वही, क्र० ४३२ । ४. वही, क्र० २७८ । ५. वही, क्र० २४६-२४८ । ६. वही, क्र० ११६ । ७. वही, क्र० २४९ । ८. वही, क्र० ३३७ । ९. "जो जोडेज्ज विवाहं, किसिकम्मवाणिज्ज जीवधादं च" । (लिंग पाहुड)
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