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________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ७९ का उपयोग करते हैं । अपने होनाचारी मृत गुरुओं की दाहभूमि का स्तूप बनवाते हैं । स्त्रियों के समझ व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं। सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने व्यर्थ बकवाद में समय नष्ट करते हैं। चेला बनाने के लिये छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिनप्रतिमाओं का क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन करते और वैद्यक, मंत्र, यन्त्र, तन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं । ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुये श्रावकों को रोकते हैं । शाप देने का भय दिखाते हैं । परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिये आपस में लड़ पड़ते हैं।" चैत्यवास का यह चित्र तो ८वीं शताब्दी का है। इसके पश्चात् तो इनका आचार उत्तरोत्तर शिथिल होता गया और चैत्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये। उत्तरवर्ती स्थिति के बारे में मुनि जिनविजय लिखते हैं : "चैत्य ही उनका मठ या वास स्थान था। उनके आचार-विचार जैन शास्त्रों में वणित निर्ग्रन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरह से मठपति थे । शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मंत्रवादी वीराचार्य आदि प्रभावशाली, प्रतिष्ठा सम्पन्न और विद्वान् चैत्यवासी यति जन उस समय जैन समाज के धर्माध्यक्षकत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे। जैन समाज के अतिरिक्त आम जनता में और राज दरबार में भी इनका बड़ा प्रभाव था। जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यवहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं के अधीन था। इनका यह सब व्यवहार जैन शास्त्र की दृष्टि से यति मार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था ।" अनहिलपुर पाटण के राजा वनराज चावड़ा (७६५-८२५ ई०) द्वारा उनके गुरु शीलगुण सूरि ने यह आज्ञा प्रसारित करवा दी थी कि नगर में चैत्यवासी साधुओं के अतिरिक्त अन्य वनवासी आदि साधु प्रवेश नहीं कर सकेंगे। इस अनुचित आज्ञा को निरस्त करवाने के लिये १०१७ ई० में जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि ने राजा दुर्लभ देव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया, तब कहीं पाटण में विधि मागियों का प्रवेश हो सका। चैत्यवासी, जैन साधुओं के पारम्परिक मार्ग से विचलित होकर जैन मन्दिरों और प्रतिमाओं की स्थापना करने लगे थे, जो कि जन सामान्य की प्रथा थी न कि साधुओं की । चैत्यवासी इसमें हानि नहीं मानते थे और इसके लिये अनुचित तर्क भी देते थे। राजस्थान में चैत्यवासियों की गतिविधियों के बारे में जानकारी देने वाले कई अभिलेख हैं । १३५४ ई० में जीरापल्ली गच्छ के रामचन्द्र सूरि ने जीरापल्ली में देवकुलिका १. संबोध प्रकरण, युग प्रधान जिनदत्त सूरि प्रकरण, पृ० ८-९ । २. कथा कोष प्रकरण, पृ० ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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