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________________ -७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं (अ) चैत्यवासी प्रथा : (१) श्वेताम्बर संम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा : राजस्थान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा सफल और लाभकारी ढंग से विद्यमान थी । जैन सूत्रों में वर्णित आचार के नियमानुसार कोई भी साधु किसी गाँव में एक रात्रि और किसी नगर में पाँच रात्रि से अधिक नहीं ठहर सकता । यह प्रथा जैन एवं बौद्ध श्रमण संस्कृति की विरासत है । किन्तु धीरे-धीरे मुनियों के आचार में शिथिलता आने लगी । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के यति या श्रीपूज्य जिन मन्दिरों में रहते थे, उनको प्रायः चैत्य-गृह कहा जाता था । आचार्य धर्मसागर ने ३५५ ई० में चैत्यवासी प्रथा प्रारम्भ होना बताया है ।" मुनि कल्याण विजय के अनुसार यह इससे पूर्व ही स्थापित हो गई थी और ३५५ ई० तक तो एक सुस्थापित परम्परा हो गई थी । पूर्वकालीन कुछ मुनियों ने इस कुप्रथा का विरोध करके वनवास को प्राथमिकता दी जिससे " वनवासी गच्छ" नाम प्रारम्भ हुआ । किन्तु रागातिरेक से मुनियों में स्थिरवास की प्रवृत्ति बढ़ने लगी जो क्रमिक रूप से " बसतिवास" व तदनन्तर चैत्यवास में परिवर्तित हो गई । राजस्थान में चैत्यवासी प्रथा लगभग ८वीं है । राजस्थान के जैनाचार्यों, जैसे हरिभद्रसूरि - ध्यान इस शिथिलाचरण की तरफ आकृष्ट प्रकरण" में उल्लेख है कि शताब्दी से और जिन किया था । "ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं । पूजा करने का ढोंग करते हैं । देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं । जिन मन्दिर और शालायें बनवाते हैं । रंग-बिरंगे, सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं । बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं । आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं । सचित्त जल, फल, फूल आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं । दिन में २-३ बार भोजन करते और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं । ये लोग मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं तथा भभूत देते हैं । ज्योनारों में मिष्ठ आहार प्राप्त करते हैं । आहार के लिये खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । स्वयं भ्रष्ट होते हुये भी आलोचनप्रायश्चित आदि करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल १. जैसाऔइ, पृ० ३५१ । २. वही । ३. सम्बोध प्रकरण, ४. संघ पट्टक, श्लोक, ७, ११, १२, १५, २१ आदि । Jain Education International विकसित हुई प्रतीत होती बल्लभ सूरि ने जनता का हरिभद्रसूरि कृत " संबोध श्लोक - २७, ३४, ४६-४९, ६१, ६३, ६८ आदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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