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जैनधर्म भेद और उपभेद : ७७
जैनाचार्यों के व्यक्तिगत वर्चस्व एवं व्यक्तित्व के मूल्यांकन की कसौटी उनके द्वारा स्थापित पंथ एवं अनुयायियों की संख्या बन गई । बहुसंख्यक गच्छ, संघ, जाति भेद एवं असंख्य गोत्र इसी प्रवृत्ति की देन है। पौराणिक धर्म के उदय व शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध धर्म का पश्चिमी भारत से उच्छेद हो गया था । बाह्य आक्रमणों का सदैव भय बना रहता था, फिर भी राजस्थान में राजपूतों के शासन के कारण अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण वातावरण था। कई शासक विद्वानों के आश्रयदाता थे। जैन मतावलंबियों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। सारा धन नगरों व मन्दिरों में एकत्र हो गया था। समाज में स्त्रियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। राजपूतों का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ रहा था, अतः ब्राह्मणों ने सामाजिक बन्धन कठोर कर दिये थे । __ जैनाचार्यों को समाज के सभी वर्गों में अप्रतिहत गति थी। वैदिक धर्म की ओर अनिच्छा पूर्वक आकृष्ट होने वाले सामान्य जनों को इस समय जैनाचार्यों की वाणी से अवलम्ब मिला । जैनाचार्य सभी को समान रूप से प्रतिबोध देते थे तथा राजदरबार से लेकर गरीब वर्गों तक में वे समान रूप से आदरणीय थे । जैन मतावलम्बियों को शासन में उच्च पद प्राप्त थे । भोज, विग्रहराज, कुमारपाल आदि उदार शासकों ने जैन मत को प्रश्रय देकर स्वर्ण काल की पराकाष्ठा तक पहुँचाया ।
समकालीन बहुविध कारणों के परिणाम स्वरूप जैन धर्म के उक्त २ वृहत् संप्रदाय भी कालक्रम में गण या गच्छ, संघ, कुल, शाखा, सम्भोग, पढय्या, समुदाय, आम्नाय, अन्वय, वंश, मण्डलि आदि भेदोपभेदों में विभाजित होने लगे। इस टूटन के उत्तरदायी कारक सैद्धांतिक मतभेद, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा या कतिपय स्थानीय कारण थे। साधुसाध्वियों की विलगाववादी प्रवृत्ति श्रावक वर्ग में भी प्रतिबिम्बित होकर कई जातियों और गोत्रों की उत्पत्ति का प्रेरक हेतु बनी।
पूर्व मध्यकाल में जैन मत में विभिन्न भेद-उपभेद नैमित्तिक हेतुओं से उद्भत होकर गच्छों एवं संघों के रूप में अस्तित्व में आये । चैत्यवास का अवसान तथा सुविहित पक्ष का उदय हुआ। जैनाचार्यों की धर्मप्रसारक प्रभावना एवं उद्बोधन से विभिन्न जातियाँ मुख्यतः क्षत्रिय जैन मत में दीक्षित हुये । मध्यकाल में साधु एवं श्रावकों की इन लघु इकाइयों ने चरमोत्कर्ष देखा। इसी काल में राजनीतिक अवस्थाओं की विडम्बना, मूलतः शासन शक्ति के सहयोग से मुस्लिमों द्वारा विध्वंस एवं धर्म प्रचार, की व्यापक सामाजिक प्रतिक्रिया के कारण जैन धर्म में भी कुछ नये अमूर्ति-पूजक एवं विरोधी पंथ अस्तित्व में आये। श्रावक वर्ग छोटे दायरों में विभक्त होता गया । उत्तर मध्यकाल में उपभेदों में से भी शाखायें, प्रशाखायें निकलना प्रारम्भ हुईं और मतगत दायरों की संकीर्णता श्रावकों की मानसिकता को भी प्रभावित करने लगी। सामंजस्य बुद्धि का अभाव तथा धार्मिक कट्टरता में वृद्धि होने लगी।
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