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अध्याय तृतीय
जैनधर्म भेद और उपभेद पृष्ठभूमि :
महावीर के समय से ही जैन धर्म ने प्रचारित, प्रसारित होकर विभिन्न प्रवृत्ति एवं 'विचारों वाले जन समुदायों को आत्मसात कर लिया था। अतः भिन्न-भिन्न वैचारिक धरातल के व्यक्तियों के मिलन की प्रतिक्रियास्वरूप जैन संघ में नये-नये मतमतांतरों, "फूट, विलगाव आदि का पैदा होना स्वाभाविक था और कालान्तर में यह जैन मत के दो वृहत् संप्रदाय या परम्पराओं-दिगम्बर एवं श्वेतांबर के रूप में अस्तित्व में आ गया । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में निम्नलिखित मतभेद हैं :
१. श्वेताम्बर नग्न रहने को मोक्ष के लिये अनिवार्य नहीं समझते जबकि दिगम्बर वस्त्रों को परिग्रह का रूप समझकर मोक्ष में बाधक मानते हैं।
२. श्वेताम्बर स्त्रियों को इसी जीवन में मोक्ष की अधिकारी मानते हैं, दिगम्बर इसका निषेध करते हैं।
३. श्वेताम्बरों का विचार है कि कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मनुष्य को भोजन की आवश्यकता रहती है। दिगम्बर दर्शन के अनुसार वह निराहार रह सकता है।
४. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने यशोदा से विवाह किया और उनके प्रियदर्शना नाम की पुत्री हुई । दिगम्बरों के अनुसार वे अविवाहित रहे।
५. श्वेताम्बर १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते हैं, जब कि दिगम्बर पुरुष ।
६. श्वेताम्बर पुरानी वाचनाओं के अनुसार १२ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, ४ मूल सूत्र, २ अन्य ( नन्दी और अनुयोग द्वार ) इन ४६ आगमों को मानते हैं । दिगम्बर इन्हें स्वीकार नहीं करते। इनके अनुसार प्राचीन आगम का केवल एक अंश 'षट्खंडागम" के रूप में बचा है।
इन भेदों के होने पर भी दोनों सम्प्रदायों का दार्शनिक आधार एक ही है। दोनों उमास्वामी के "तत्वार्थाधिगम सूत्र" में प्रतिपादित दर्शन को प्रामाणिक मानते हैं।
गुप्तकाल के पश्चात् ७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही केन्द्रीय राजनीतिक सत्ता के विध्वंस से शासन में विकेन्द्रीकरण प्रारम्भ हुआ। संस्कृति एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रादेशिकता एवं व्यक्तिवाद का वर्चस्व प्रारम्भ हुआ। इससे सभी धर्मों में भी विभिन्न पंथ, विलगाव एवं भेद-प्रभेद दृष्टिगत होने लगे। राजस्थान में सम्पूर्ण मध्यकाल में
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