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८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म संकेत देता है कि जैन धर्म राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक जागरूक व संगठित था । संगठन कौशल के कारण ही सम्भवतः जैन धर्म सभी परिवर्तनों के मध्य भी जीवित रहा। प्रयुक्त शब्दावली :
गण, गच्छ--विभिन्न समाचारी साधुओं या संभोगियों के मिलने से बनने वाली इकाई गण कहलाती है। "गण"२ ही कालान्तर में “गच्छ'' कहलाने लगे । जेकोबी का अभिमत है कि आधुनिक गच्छ प्राचीन गणों के समतुल्य दिखाई देते हैं । “गच्छ" का शाब्दिक अर्थ, एक ही श्रेणी के मुनियों द्वारा विशिष्ट सैद्धांतिक पथ अभिप्रेत है । गच्छ-सन्दर्भ-उपांग, नियुक्तियों और प्रकीर्णकों में भी देखने को मिलते हैं। "गण" शब्द से "गच्छ" शब्द का नामान्तरण "महानिसीह" में भी देखा जा सकता है । गच्छ एक समाचारी साधुओं का समूह है, जो उस समूह विशेष के नियमों का शुद्धतापूर्वक पालन करते हैं । “गच्छ" शब्द पूर्वकाल में ३-४ से लेकर हजारों साधुओं की टुकड़ियों के अर्थ में प्रचलित था। धीरे-धीरे इसका अर्थ पांच अधिकारियों से बने हुये समूह तथा कालान्तर में "गण व्यवस्थापक मंडल" के अर्थ में प्रचलित हुआ और फिर यह "गण" का पर्याय बन गया। १२वीं शताब्दी की सूत्र टीकाओं में उनके रचयिताओं ने "गच्छ'' का अर्थ "कुलों का समूह" किया है, जो तत्कालीन स्थिति के अनुरोध से ठोक कहा जा सकता है, सिद्धान्त के अनुसार नहीं । गण का प्रमुख आचार्य, गणस्थविर कहलाता था।
कुल-एक ही आचार्य का शिष्य परिवार श्रमण परिभाषा में "कुल" कहलाता था । राजस्थान में इसे "संघाड़ा" भी कहते हैं। दो या दो से अधिक कुलों से गण निर्मित होते थे। "कुल'' का प्रमुख आचार्य "कुल स्थविर" कहलाता था ।
शाखा-आचार्य विशेष से शिक्षा प्राप्त करने वाले शिष्य, चाहे वे एक ही कुल के हों या नहीं, शाखायें कहलाती थीं। १. बृहत्कल्प, ४, १८-२० । २. शुब्रिग, डॉक्ट्रीन ऑफ द जैन्स, पृ० ६७ । ३. बृहत्कल्प भाष्य, ५, पृ० १४८६ । ४. सेबुई, २२ । ५. शुकिंग, महानिसीह, पृ० ७६ । ६. औपपातिक सूत्र, पृ०७४ । ७. मुहस्मृग, पृ० ५४५ । ८. औपपातिक सूत्र-टीका, पृ० ८१ । ९. सेबुई, २२, कल्पसूत्र, पृ० २८६ ।
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