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जैनधर्म भेद और उपभेद : ८३ इनके अतिरिक्त गुम्म और पढय्या भी साधुओं को विशिष्ट समूह बोधक संज्ञाएँ थीं' । मुनियों को योग्यतानुसार युगप्रधान, आचार्य, उपाध्याय, गणी, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक आदि पद दिये जाते थे।
दिगम्बर सम्प्रदाय के भेदों व उपभेदों के सन्दर्भ में, श्वेताम्बर सम्प्रदाय को तुलना में भिन्न शब्दावली प्रयुक्त हुई है। सभी गणों का संयुक्त मंडल संघ कहलाता था । संघ के अन्तर्गत आम्नाय, अन्वय, बलि, समुदाय, गच्छ, गण, वंश आदि शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लेखों में दृष्टिगत नहीं होता। (१) पूर्व मध्यकाल : (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भेद-प्रभेद : (क-१) प्रवर्तमान गच्छ :
जैन परम्परा के अनुसार, ६५ ई० में जिनदत्त के चार पुत्रों चन्द्र, नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर सहित श्रमण धर्म की दीक्षा वज्रसेन के आचार्यत्व में ग्रहण करने के उपरान्त, क्रमशः चन्द्रकुल, नागेन्द्र कुल (नाइली शाखा) निवृत्ति कुल व विद्याधर कुल प्रकट हुए । चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित पट्टावली एवं टिप्पणों के अनुसार चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों आचार्यों में से प्रत्येक ने अपने सुविशाल शिष्य समूह में से २१-२१ सुयोग्य श्रमणों को पृथक्-पृथक् रूप से आचार्य पदों पर नियुक्त किया, जिनसे ८४ ई० में ४ गणों और ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई । सम्भवतः चारों गणों का महत्त्व जताने के लिए इस प्रकार का उल्लेख किया गया है। उपाध्याय धर्मसागरकृत पट्टावली में इनका क्रमिक अस्तित्व में आना वर्णित है । तथाकथित ८४ गच्छों या उनमें से कुछ का भी कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता है।
कुछ पट्टावलियों में ९३७ ई० में ८४ गच्छों के अस्तित्व में आने का उल्लेख है। यह आंशिक रूप से असत्य प्रतीत होता है, क्योंकि खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ आदि कई महत्त्वपूर्ण गच्छ बाद में अस्तित्व में आये ऐसा प्रमाण उपलब्ध है। कुछ पट्टाबलियाँ इनका क्रमिक रूप से अस्तित्व में आना भी वणित करती है। ८४ की संख्या १. औपपातिक सूत्र, पृ० ८६ । २. मुहस्मृग, पृ० ५४६ । ३. जैसंशो, २, अंक ४, विचार श्रेणी, परिशिष्ट, पृ० १० । ४. तपागच्छ पट्टावली, भाग १, पृ० ७१ ( स्वोपज्ञ वृत्ति-कल्याण विजय ) ५ जैसंशो, खंड २, अंक ४, विचार श्रेणी परिशिष्ट, पृ० ७० । ६. "तस्माच्च क्रमेणानेक गणहेतवोअनेके सूरयो बभूवांस'' तपागच्छ पट्टावली, पृ०७१ । ७. पप्रस, पृ० ९१ एवं ९७ । ८. वही, पृ० १०१ एवं १३४ ।
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