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८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म केवल पारम्परिक प्रतीत होती है, क्योंकि मध्यकाल में ही ८४ से कहीं अधिक गच्छों के अस्तित्व में होने के प्रमाण हैं । संख्या वृद्धि का यह प्रयास ११वीं शताब्दी के बाद से शुरू हुआ । ये गच्छ अधिकतर सिरोही, मारवाड़, जैसलमेर और मेवाड़ राज्यों में प्रचलित थे। समय विशेष पर गच्छ का अस्तित्व, अनुयायियों की अच्छी संख्या व गच्छ की लोकप्रियता का द्योतक है।
१. खरतरगच्छ-खरतरगच्छ राजस्थान में सर्वाधिक प्रभावशाली, लोकप्रिय और प्रसिद्ध गच्छ रहा । १०१७ ई० में जिनेश्वर सूरि ने दुर्लभ राज सोलंकी के राज दरबार पाटण में चैत्यवासियों को पराजित कर "खरतर" की पदवी प्राप्त की तथा "सुविहित" या "विधि-पक्ष" की स्थापना की। इन्हीं से "खरतर गच्छ” प्रारम्भ हुआ ।' यद्यपि इसकी उत्पत्ति राजस्थान से बाहर हुई, किन्तु राजस्थान में इसके बहुत अनुयायी हुये। __कालक्रम में यह भी कई शाखाओं में विभक्त हो गया ।२ मधुकर खरतर शाखा १११० ई० में जिनवल्लभ सूरि ने, रुद्रपल्लीय खरतर शाखा १११२ ई० में जयशेखर सूरि ने, लघु खरतर शाखा १२७४ ई० में जिनसिंह सूरि ने, वैकट खरतर शाखा १३६५ ई० में जिनेश्वर सूरि ने, पिप्पलक खरतर शाखा १४०४ ई० में जिनवर्धन सूरि ने, आचाबिया खरतर शाखा १५०७ ई० में शान्तिसागर सूरि ने, भावहर्षीय खरतर शाखा १५५५ ई० में भावहर्ष ने, लघु आचार्थिया खरतर शाखा १६२९ ई० में जिनसागर सूरि ने, रंगविजय खरतर शाखा १६४३ ई० में रंगविजय गणी ने और सारीय खरतर शाखा उपाध्याय सूरि ने स्थापित की। आचार्य महेन्द्र कीर्ति ने, १८३५ ई० में खरतरगच्छ की एक उपशाखा मंडोवरा में प्रारम्भ की। इसके अतिरिक्त अभिलेखों में खरतरगच्छ की निम्न शाखायें भी देखने को मिलती हैं—जिनचन्द्र सुरि द्वारा स्थापित साधु शाखा, माणिक्य सूरि शाखा", क्षेमकीर्ति शाखा, जिनरंग सूरि शाखा, खरतरगच्छ का चन्द्रकुल', खरतरगच्छ का नन्दिगण', वर्धमान स्वामी १. इए, ९, पृ० २४८। २. प्राजैलेस, २, “खरतर" सूची। ३. एइ, १, पृ० ११९, बुहलर के अनुसार जिनशेखर सूरि ने ११४७ ई० में स्थापित की। ४. नाजैलेस, ३, क्र० २१९९, भाग १. क्र० १९६-१९७ । ५. वही, क्र० ५२७। ६. वही, क्र० २०६४। ७. वही, भाग १, क्र० २०६ । ८. एइ, २३, क्र० ७७७ । ९. वही, क्र० १८५३ ।
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