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जैनधर्म भेद और उपभेद : ८५ अन्वय' जिनवर्धन सूरि शाखा, रंग विजय शाखा ।
इस गच्छ के विभिन्न आचार्यों ने अनेकों मूर्तियों की स्थापना की और विपुल साहित्य सृजित किया। राजस्थान के विभिन्न भागों में इसके उल्लेख के अभिलेख पाये जाते हैं । किन्तु जैसलमेर व पश्चिमी राजस्थान में यह विशेष लोकप्रिय रहा । वर्तमान में बीकानेर व जयपुर में इसकी गादियाँ हैं। इस गच्छ के अभिलेखीय प्रमाण १०९० ई० से उपलब्ध होते हैं । ____२. बृहद् गच्छ-अर्बुद पर्वत पर स्थित तेली गांव में एक वट वृक्ष के नीचे, उद्योतन सूरि ने देवसूरि सहित मुनियों को सूरि पद प्रदान किया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यह उपाधि केवल सर्वदेव सूरि को ही दी गई थी। चूंकि यह पद वट वृक्ष के नीचे प्रदान किया गया था अतः निर्ग्रन्थ गच्छ को वट गच्छ कहा जाने लगा। चट गच्छ ही कालक्रमेण बृहदगच्छ के रूप में जाना जाने लगा। इस गच्छ के १०४६ ई० के प्रारम्भिक अभिलेख, सिरोही राज्य में कोटरा में उपलब्ध हैं। ११५८ ई० के अभिलेख नाडौल (मारवाड़) में भी पाये गये हैं। सिरोही व मारवाड़ राज्यों में यह विशेष रूप से प्रचलन में था। इस गच्छ का प्राचीनतम अभिलेख ९५४ ई० का, सिरोही में दयाणा चैत्य स्थित कायोत्सर्ग प्रतिमा का है, जिसमें बृहदगच्छ के परमानन्द सूरि के शिष्य यक्षदेव सूरि का उल्लेख है।'
३. उपकेश गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति राजस्थान में ओसिया या उपकेश नगर से मानी जाती है । इस गच्छ के देवगुप्त सूरि ने सिरोही में लोटाणा तीर्थ में धातुपंचतीथी की प्रतिष्ठा ९५४ ई० में, प्राग्वाट साह सिंहदेव के पुत्र नल द्वारा करवाई थी।१० अतः ९५४ ई० के पूर्व यह उत्पन्न हो गया होगा।
४. संडेरक गच्छ -इस गच्छ की उत्पत्ति मारवाड़ में स्थित संडेरा या संडेरक स्थान से यशोदेव सरि के द्वारा की गई। मुस्लिम आक्रमण के कारण काठियावाड़ से
१. भावनगर इंस्क्रि०, ७, पृ० ११२-११३ । २. नाजैलेस, २, क्र० १९९६ । ३. वही, क्र० १००५ । ४. वहो, भाग ३, क्र० २१२४ । ५. श्रभम, ५, २, स्थविरावली, पृ०२। ६. प्रालेस, १, क्र० ३ । ७. नाजैलेस, क्र० ८३३, ८३४ । ८. अप्रजैलेस । ९. श्री प्रलेस, क्र० ३३१ । १०. वही, क्र० ३२१ ।
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