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. २०० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं
यहाँ विहार किया ।" १३२३ ई० में दिल्ली के सेठ के साथ तीर्थयात्रा पर यहाँ आये थे, उस समय आयोजन किया गया था।
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जैन धर्म की गतिविधियाँ मुस्लिमकाल में भी सतत रूप से चलती रहीं । जोधपुर के राठौर शासक मालदेव के शासनकाल में " षट्कर्म - ग्रन्थवचूरि ३ को प्रतिलिपि और १५३८ ई० में "अणुव्रत रत्नप्रदीप १४ लिखी गई । हीरविजय सूरि, जिनको अकबर ने " जगद्गुरु" की उपाधि से विभूषित किया था, भी यहाँ आये थे और मुस्लिम राज्यपाल सादिन ने उनका भव्य स्वागत किया था । एक भव्य समारोह के उपरान्त, हीरबिजय सूरि ने सिंह विजय सूरि को मेड़ता में हो उपाध्याय की पदवी दी थी ।" मालदेव के शासन काल में यहाँ कई हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ की गईं । हीर कलश ने १५७९ ई० में यहीं पर "सिंहासन बत्तीसी” की रचना की । १६७० ई० में, शाहजहाँ के शासनकाल में आशाकरण ने शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा अपने ही मन्दिर में स्थापित की । उसने संघपति के रूप में, आबू और विमलाचल की तीर्थ यात्राएँ आयोजित की तथा जिनराज सूरि को " सूरिपद" मिलने के उपलक्ष में "नंदि महोत्सव" आयोजित करवाया । मध्यकालीन उद्भट विद्वान् समयसुन्दर यद्यपि गुजरात के थे, किन्तु बाद में वे मारवाड़ में आ गये और मेड़ता में रहकर उन्होंने १६१५ ई० में " समाचार शतक", "विशेष शतक", प्रियमेलक रास", १६१६ ई० में " गाथा लक्षण" और १६२१ ई० में "सीता राम प्रबंध” की रचना की ।" कनक विजय के शिष्य गुणविजय ने "विजयसेन सरिनिर्वाण स्वाध्याय' की रचना मेड़ता में को ।"
रायपति, जिन कुशल सूरि एवं संघ श्रावकों द्वारा भव्य उत्सव का भी
सामाजिक एवं जातीय दृष्टि से मेड़ता का अत्यधिक महत्व इस कारण रहा कि यहाँ वैश्यों को १२३ जातियों में से एक " मेड़तवाल" जाति की उत्पत्ति हुई । १५२९ ई० में हीरकलश द्वारा रचित "सिंहासन बत्तीसी" में भी इसका उल्लेख मिलता है ।
१. खबगु, पृ० ६८ ।
२. वही, पृ० ७३ ॥
३. श्री प्रशस्ति संग्रह, संख्या ३३४ ।
४. भट्टारक संप्रदाय, क्र० २७९ ।
५. जैन तीर्थसर्वसंग्रह, पृ० १९७-१९८ ॥ ६. जैगुक, १, पृ० २३५ । ७. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ६२ । ८. जैगुक, पृ० ३४७, ३६१, ३८९ । ९. वही, पृ० ५२१ ।
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