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जैन तीर्थ : १८१ ११६९ ई० में हुई । मन्दिर के मुख्य शिल्पी आहड़ थे, जो हरसिंह के पौत्र एवं माल्हण के पुत्र थे।
मन्दिर के चारों कोनों पर गोल गुम्बद युक्त चार देवरियां हैं । मन्दिर के गर्भगृह में वेदी के मध्य में शिखराकृति है एवं शिखर के मध्य द्वाराकृति बनी है, जो रिक्त है और इस बात का संकेत करती है कि मूलनायक पार्श्वनाथ की प्रतिमा पहले कभी यहाँ रही होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलनायक प्रतिमा को मुस्लिम आक्रमणों के समय सुरक्षा की दृष्टि से भूगर्भ में स्थापित कर दिया गया होगा। वेदी में कोने में एक छेद है, जिसमें से अभिषेक का जल नीचे जाता है व सिक्का डालने पर "खन्न" की ध्वनि होती है। शिखर पर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं, जिसमें बीच में पार्श्वनाथ प्रतिमा है, जिसके ऊपर ३ छत्र व गजलक्ष्मी हैं, छत्रों के ऊपर पद्मावती, गजलक्ष्मी व देवयुगल उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के सामने फर्श पर "सोपानतना" शब्द अंकित है, जिससे यह अनुमान किया जाता है कि भूगर्भ के किसी कक्ष में मूर्तियां सुरक्षित हैं। १९०१ ई० में राजा कृष्णसिंह के आदेश से यहां खुदाई करने पर प्रस्तर हटाते ही एक श्वेत सर्प प्रकट हो गया एवं इस चमत्कार के उपरान्त खुदाई बन्द कर देनी पड़ी, परन्तु इसके बाद मन्दिर का अतिशय और भी बढ़ गया। सभा मण्डप में एक तरफ रेवती कुंड से निकाली गई पद्मावती, क्षेत्रपाल, अम्बिका, ज्वालामालिनी और धरणेन्द्र की मूर्तियाँ हैं । मन्दिर के उत्तर-पश्चिम में धरणेन्द्र (मानभद्र) की विशाल मूर्ति है, जो इस क्षेत्र के रक्षक क्षेत्रपाल है।
जैन तीर्थ होने के कारण बहुधा जैन सन्त यहां आते रहते थे। पूर्वकाल में यह माथुर संघ के जैनाचार्यों की गादी थी। ११६९ ई० के बिजौलिया शिलालेख के लेखक गुणभद्र महामुनि माथुर संघ के ही थे। बाद में यह मूलसंघ की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। १४०८ ई० व १४९६ ई. के शुभचन्द्र के जीवनकाल के दो शिलालेख उपलब्ध हैं। पहले शिलालेख में जैन साध्वी बाई आगमश्री की निषेधिका का उल्लेख है एवं दूसरे में शुभचन्द्र के शिष्य हेमचन्द्र की निषेधिका का उल्लेख है । इन निषेधिकाओं के बारे में यह इच्छा व्यक्त की गई है कि ये चन्द्र-सूर्य के रहने तक अस्तित्व में रहें। द्वितीय अभिलेख वाले स्तम्भ पर किसी सन्त के चरण-युगल उत्कीर्ण हैं। स्तम्भ के एक
ओर भट्टारक पद्मनन्दी व दूसरी ओर भट्टारक शुभचन्द्र का नाम उत्कीर्ण है । रेवती कुण्ड के उत्तर की ओर दीवार के निकट एक बड़ी शिला पर ४२ पंक्तियों का मन्दिर की प्रतिष्ठा व दानादि का लेख, स्वमं श्रेष्ठी लोलाक ने उत्कीर्ण करवाया था।
१. भादिजैती, ४, पृ० ६८ । २. एसिटारा, पृ० ४०३ । ३. प्रोरिआसवेस, १९०५-६, पृ० ५८ ।
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