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________________ १८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म आते रहते थे । १६९९ ई० में ईडर के भट्टारक क्षेमेन्द्र कीर्ति और चातसू के भट्टारक जगत्कीर्ति एक ही समय इस स्थान पर आये; इस उपलक्ष्य में यहाँ के समाज ने एक महोत्सव का आयोजन किया । नयनरुचि ने "भक्तामर स्तोत्र" की वृत्ति की प्रति इसी स्थान पर तैयार की। वैश्यों की १२३ जातियों में नरैना जाति का भी उल्लेख है, जैसा कि १६३६ ई० में लिखित "सिंहासन बत्तीसी" से पता चलता है । (५) बिजौलिया तीर्थ : बून्दी से २८ मील दूर भीलवाड़ा रोड़ पर स्थित, बिजौलिया नामक कस्बा सुन्दर दृश्यावली एवं चहरदीवारी से घिरा हुआ, अरावली पर्वत श्रृंखला के उच्च पठार ( ऊपर - माल ) पर बसा हुआ है । यह ऊपर माल पूर्ववर्ती काल में "उत्तमाद्रिशिखर" तथा आसपास के सघन जंगल " भीमवन" के नाम से जाने जाते थे । शिलालेखों में इसका प्राचीन नाम "विध्यवल्ली", "विजयवल्ली", "अहेचपुर", "मोराकुरा", "विध्यवल्ली" एवं "विद्युवल्ली" आदि मिलते हैं । इस नगर की स्थापना सम्भवतः हूण जाति के किसी राजा ने की थी । स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार, नगर संस्थापक राजा का नाम " औन" या हूण था। चौहानों के शासनकाल में यह महत्त्वपूर्ण नगर जैन एवं शैवों के लिये पवित्र तीर्थ स्थान बन गया । १२वीं शताब्दी में पार्श्वनाथ मूर्ति के दृश्यमान होने के पूर्व भी बिजोलिया शैव मत का बहुत बड़ा केन्द्र था । " श्रेष्ठी लोलाक ने स्वप्न के निर्देशों पर रेवती नदी के किनारे से पार्श्वनाथ की प्रतिमा खोद कर निकाली तथा अपने गुरु जिनचन्द्र सूरि के परामर्श से यहाँ पार्श्वनाथ के विशाल जिनायतन का जीर्णोद्धार करवाया और इसके चातुर्दिक सात छोटे मन्दिर भी बनवाये । लेख के अनुसार लोलाक ने यह मन्दिर सप्त आयतन युक्त बनवाया, जिसके पूर्व में रेवती नदी और देवपुर, दक्षिण में मठ स्थान, उत्तर में कुण्ड और दक्षिणोत्तर में वृक्षों से भूषित वाटिका थी । वर्तमान मन्दिर लोलाक द्वारा निर्मित मन्दिर नहीं हो सकते, क्योंकि ये कलात्मकता एवं निर्माण की दृष्टि से थोड़े हल्के व आधुनिक प्रतीत होते हैं, तथा संख्या में भी ८ के स्थान पर ५ ही हैं । मन्दिर के सम्मुख निर्मित रेवती कुण्ड का नाम लोलाक ने रेवती नदी के आधार पर रखा होगा । मन्दिर की प्रतिष्ठा १. एसिटारा, परि०, क्र०, ३० । २. बून्दी के शास्त्र भण्डार का ग्रन्थ क्र० २४७ ॥ ३. जैगुक, १, पृ० २३५ । ४. एइ, २६, पृ० १०८ । ५. एसिटारा, पृ० ४०० । ६. एइ, २६, पृ० १०० । ७. वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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