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३५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
शिष्य थे। इन्होंने विभिन्न स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये। ये संस्कृत व प्राकृत के विद्वान् थे । 'जिनसत्तरी" इनकी प्रमुख प्राकृत रचना है।'
९. भट्टारक जिनचंद्र-भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र १६वीं शताब्दी के प्रसिद्ध दिगम्बर जैन सन्त थे । इनकी प्राकृत रचना "सिद्धान्तसार" है।
१०. मुनि हीरकलश-१५६४ ई० में नागौर में इन्होंने "ज्योतिस्सार" की रचना प्राकृत में की। इस ग्रन्थ की प्रति बम्बई के माणिक चन्द्र भण्डार में है।
११. भट्टारक शुभचंद्र-ये बलात्कारगण से सम्बन्धित, सागवाड़ा के भट्टारक थे। ये जिनभषण के शिष्य थे। इन्होंने "शब्द चिन्तामणि" नामक प्राकृत व्याकरण लिखी। "अंगपण्णति" भी इनकी एक अन्य प्रसिद्ध रचना है। इनका समय १६वीं शताब्दी माना जाता है।
इनके अतिरिक्त, नयरंग, जयसोम आदि भी इस काल के प्रमुख प्राकृत कवि थे। इन शताब्दियों को अन्य रचनाएँ-दिवाकर दास की "गाथाकोष सप्तशती", व अन्य रचनाकारों की "विधिकंदली", "अंगुल सत्तरी" आदि भी उपलब्ध होती हैं। (२) अपभ्रंश साहित्य एवं साहित्यकार:
१. विनयचंद्र सूरि-१३वीं शताब्दी में विनयचन्द्र नाम के दो अपभ्रश के कवि हुए हैं। इन्होंने "नेमिनाथ चतुष्पदिका" लिखी, जिसको प्रति जैसलमेर भण्डार
२. पं० लाख (लक्खण)- इनके द्वारा १२१८ ई० में विरचित "जिनदत्त चरिउ" अपभ्रंश के कथाकाव्यों में एक उत्तम रचना मानी जाती है। ये जायसवाल वंशीय तथा त्रिभुवनगिरि के निवासी थे। इनकी प्रारम्भिक रचना 'चंदनछठ्ठी कहा" है, जो एक इतिवृत्तात्मक लघुकाय रचना है । इनकी एक और रचना १२५६ ई० में रचित "अणुव्रत प्रदीप" भी ज्ञात हुई है।
३. मुनि विनय चंद्र-मुनि विनयचन्द्र ने "चूनडी रास" नामक अपभ्रंश काव्य की रचना त्रिभुवनगढ़ में अजयनरेन्द्र के विहार में बैठकर की थी। त्रिभुवनगढ़ या त्रिभुवनगिरि, तहनगढ़ ही है, जहाँ पर १३वीं शताब्दी में यादववंशी कुमारपाल का
१. राजैसा, पृ० ४४। २. राभा, ३, अंक २ । ३. शाह, जैसावृइ, ५, पृ० १८६ । ४. राजैसा, पृ० ५०। ५. प्रेम सुमन, जैसरा, पृ० २३० । ६. राजैसा, पृ० १४६ ।
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