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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५३ राज्य था । इस रास में ३२ पद्य हैं । इसके अतिरिक्त इनकी " णिज्झर पंचमी कहारासु" भी उपलब्ध है । इनका रचना काल १२वीं या १३वीं शताब्दी अनुमानित है ।"
४. अमर कीर्ति - ये १३वीं शताब्दी के विद्वान् थे । इनकी "चक्कम्मोवएस" एवं " पुरन्दर विधान कथा" अपभ्रंश कृतियाँ, आमेर शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हैं । इनके ग्रन्थों में " गोदहयनगर " एवं "महियड” नामक स्थानों का उल्लेख है, जो पश्चिमी भारत के नगर थे । अतः इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान भी रहा होगा ।"
५ जिनप्रभ सूरि- इन्होंने अपभ्रंश में " नाणप्पयास" की रचना की । यह कृति " कुलक" नाम से भी प्रसिद्ध है । इनकी अपभ्रंश की दूसरी कृति " धम्माधम्मविचार " है । इन्होंने "सावगविहि" नाम की एक रचना भी की, जो दोहा छंद में अपभ्रंश के ३२ पद्यों की है । इन्होंने मुहम्मद तुगलक को भी अपनी प्रतिभा से प्रभावित किया था, अतः इनका समय १४वीं शताब्दी होना चाहिये । ३
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६. कवि हरिचंद - पं० परमानन्द शास्त्री के अनुसार कवि का नाम "हल्ल" या "हरिइन्द" अथवा हरिचंद था । इनका " वड्ढमाण कव्व" या "वर्धमान काव्य" लगभग १५वीं शताब्दी की रचना है । इसका रचनास्थल राजस्थान में ही था । इनके गुरु पद्मनन्दि थे । ४
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७. ब्रह्म बूचराज – इनका एक नाम " वल्ह" भी था । ये मूलतः राजस्थानी कवि थे । इनकी रचनाओं में इनके बूचा, वल्ह, वील्ह व वल्हव आदि नाम भी मिलते हैं । ये भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य थे । १५२५ ई० में इन्हें चंपावती (चातसू) में " सम्यकत्व कौमुदी" की प्रति भेंट की गई थी, अतः ये राजस्थान से अवश्य सम्बद्ध रहे होंगे । प्राप्त रचनाओं के आधार पर इनका काल १४७३ ई० से १५४३ ई० तक माना जाता है । ब्रह्मचारी होने के कारण इनका ब्रह्म विशेषण प्रसिद्ध हो गया । इनको ८ रचनाओं में से "मयणजुज्झ" ही अपभ्रंश रचना है, जो इन्होंने १५३२ ई० में समाप्त की थी । इस कृति की प्रतियाँ राजस्थान के कई शास्त्र भण्डारों में मिलती हैं ।"
८. ब्रह्मसाधारण - ये राजस्थानी संत, भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । पहले ये पं० साधारण के नाम से प्रसिद्ध थे, किन्तु ब्रह्मचारी रहने के कारण इनके नाम के साथ "ब्रह्म" विशेषण जुड़ गया । इन्होंने १५वीं, १६वीं शताब्दियों में अपभ्रंश भाषा में निम्न ९ रचनाएँ लिखीं- "कोइलपंचमी कहा", "मउडसप्तमी कहा", " रविवय कहा ",
१. राजैसा, पृ० १४७ । २. वही ।
३. जैसरा, पृ० २३० ।
४. जैग्रप्रस, पृ० ८६ । ५. राजैसंत, पृ० ७१ ।
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