________________
३५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
"तियाल चउवीसी कहा", "सुमंजलि कहा ", निवसिसत्तमी वय कहा ", " णिज्झर पंचमी कहा ", " अणुवेवखा", "दुद्धारमि कहा " ।"
९. तेजपाल – ये खण्डेलवाल जातीय थे एवं अपभ्रंश के सुख्यात कवि थे । इन्होंने स्वयं को " वासनपुर " का निवासी बताया है । इनको ३ कृतियाँ उपलब्ध हैं । प्रथम "पासणाह चरिउ " १४५८ ई० की रचना है । इसकी एक पांडुलिपि अजमेर के शास्त्र भण्डार में है । दूसरी "संभवणाह चरिउ " है, जिसकी रचना श्रीमन्त नगर में सम्पन्न हुई थी । तीसरी कृति "वरांगचरिउ" है, जिसका काल १४५० ई० है |
१०. महाकवि रद्दधू :- ये मध्यकालीन अपभ्रंश कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । रचनाओं की संख्या की दृष्टि से भी इनका अपभ्रंश साहित्य में सर्वोपरि स्थान है । डॉ० राजाराम जैन ने इनकी ३५ अपभ्रंश कृतियों का उल्लेख किया है । इनकी रचनाओं में जन्मस्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है । राजाराम जैन के अनुसार इनका जन्म पंजाब एवं राजस्थान के सीमांत से लेकर ग्वालियर के बीच तक का कोई स्थान होना चाहिये । डाँ० कासलीवाल ने इनका जन्म स्थान धौलपुर माना है । सम्भव है, वयस्क होने के उपरान्त इन्होंने अपना निवास स्थान बदल लिया हो । जयपुर, अजमेर, नागौर, मौजमाबाद आदि स्थानों के ग्रन्थ संग्रहालयों में कवि की निम्न कृतियाँ संग्रहीत हैं- " मेहेसर चरिउ", "जीवंधर चरिउ", "पउम चरिउ", "हरिवंश पुराण", "पज्जुण चरिउ ", "पासणाह पुराण", "सम्मतगुण निधान", " जसहर चरिउ", "घण्णकुमार चरिउ ", " पुण्णासव कहा कोसु”, “सुकोमल चरिउ", " सम्मइजिण चरिउ ", " सिरिवाल कहा", "सिद्धान्तार्थ सार", "सांतिणाह चरिउ", "अप्यसंबो हकन्त्र", "सम्मत्तकउमुदो", "णेमिगाह चरिउ", "करकंडु चरिउ”, " दशलक्षण जयमाल ", " षोडषकारण जयमाल", "भवोसयत्त चरिउ" ।
११. यशकीर्ति :- १५वीं शताब्दी के अपभ्रंश कवियों में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन्होंने १४४० ई० में "हरिवंश पुराण", तथा १४४३ ई० में "पांडव - पुराण" की रचना की थी । "पांडव पुराण" नागौर में तथा "हरिवंश पुराण" जलालखों के राज्य में इन्द्रपुर में लिखा गया । इन दोनों ग्रन्थों की पांडुलिपियाँ आमेर और नागौर के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हैं ।
१२. कवि ठक्कुर : ये १५वीं - १६वीं शताब्दी के अपभ्रंश तथा हिन्दी भाषा के
१. राजसंत पृ० ७१ । २. वही ।
३. राजाराम जैन, रइबू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० ४८ । ४. जैभरा, पृ० १४० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org