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________________ २९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पाषाण फलक में तीन तीर्थंकर मूर्तियां, एक दूसरे के ऊपर बनी हुई हैं। एक अन्य शिलाफलक में, जो मूलतः चौबीसी है, मध्य में पद्मासन मुद्रा में पार्श्वनाथ हैं। इसके शीर्ष भाग में शिखर बना हुआ है। बायीं ओर के एक फलक में, एक ओर उसके उभय पावों में दो खड्गासन मूर्तियां हैं । बायीं ओर दीवार की वेदी में सम्भवनाथ हैं । दायीं ओर की दीवार की वेदी में १६८९ ई० की प्रतिष्ठित ४ मूर्तियां हैं । यहीं १ फुट ९ इंच ऊँचा शिखराकार नन्दीश्वर जिनालय भी है।' तल प्रकोष्ठ के सभा मण्डप में एक स्तम्भ में चारों दिशाओं में ५२-५२ मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । यह बावन जिनालय स्तम्भ कहलाता है । ऐसा बावन जिनालय स्तम्भ कहीं उपलब्ध नहीं होता, जिसमें २०८ मूर्तियाँ हों। तल प्रकोष्ठ का यह भाग उतना ही बड़ा है, जितना मन्दिर का ऊपरी भाग । इसकी भित्तियाँ नदी की निकटता के कारण ८ फीट चौड़ी बनाई गई हैं। मन्दिर के प्रवेश द्वार के सामने एक बरामदे में शेरगढ़ के जैन मन्दिर से लायी हुई, ११वी व १२वीं शताब्दी की ३ तीर्थकर मूर्तियां हैं। मन्दिर के अहाते में संलग्न क्षेत्र के बगीचे में दो छतरियाँ हैं । एक का निर्माण सिरोंज पट्ट के भट्टारक भुवनेन्द्र कीर्ति ने १८०३ ई० में तथा दूसरी का भट्रारक राजेन्द्र कीर्ति ने १८२६ ई० में करवाया । क्षेत्र की व्यवस्था एक प्रबन्धकारिणी समिति के सुपुर्द है।' (३) कापरडा तीर्थ : यह तीथं जोधपुर से जैतारण के मध्य, बिलाड़ा तहसील में पीपाड़ से १० मील दूर स्थित है। १६६४ ई० में उपाध्याय मेघविजय ने पाश्वनाथ-नाम-माला' में "कापडहैडा" को पार्श्वनाथ तीर्थ के रूप में वर्णित किया है ।२ अनुश्रुतियों के अनुसार एक लड़की को भूमि में दबी मूर्ति का स्वप्न आया, जो उसने यति को बताया। खुदाई करके तदनन्तर मूर्ति निकाली गई। सम्भवतः पहले कभी यहां मन्दिर रहा होगा। इसी. स्थान पर नीलवर्ण की ३ मूर्तियां और निकली थीं, जो अभी जोधपुर, सोजत व पीपाड़ में प्रतिष्ठित हैं। मूर्तियों पर लेख नहीं हैं । १६०३ ई० में मन्दिर का निर्माण कार्य शिल्पज्ञ जोरा के निर्देशन में भानाजी भण्डारी द्वारा प्रारम्भ करवाया गया । १० वर्ष तक निर्माण कार्य चला । मन्दिर का मुख्य स्तर भूमि से १०० फुट ऊँचा रखा गया था । यह मन्दिर चौमुखा, चौमंजिला व विशाल है । भव्यता के आकर्षण से दूरदूर से लोग इस तीर्थ पर आते हैं। तीर्थ के मूलनायक पुरुषादानीय, परमचामत्कारिक, श्री स्वयम्भू पार्श्वनाथ की नीलवर्णी, सपरिकर, नयनरम्य मूर्ति बहुत भव्य है । १. भादि जैती। २. वही। ३. कापरडा तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १०, प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, पृ० १५१ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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