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२७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-२) सचित्र कागज ग्रन्थ :
कागज, १०वीं-११वीं शताब्दी में अरब देशों से भारत में आया। जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में ११६० ई० का "ध्वन्यालोक लोचन' की प्रति का अन्तिम पत्र मुनि जिन विजय जी को मिला है, जो इस काल में कागज के प्रचलन के प्रारम्भ का प्रमाण है। (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट :
वस्त्र का प्रयोग लेखन एवं चित्रण के लिये प्राचीन काल से ही होता रहा है। १४वीं शताब्दी से पूर्व के वस्त्रपट्ट राजस्थान में उपलब्ध नहीं हैं । सम्भवतः मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिये गये या कपड़े की नश्वर प्रकृति के कारण समाप्त हो गये । (ख-४) काष्ठ फलक : ___ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिये, ऊपर नीचे काष्ठ पट्टिकाएं रख कर बाँध दिया जाता था। जैन चित्रकार इन काष्ठ पट्टिकाओं को भी सुन्दर ढंग से चित्रित करते थे।
__ जैन कला का राजस्थान में पूर्वतम उपलब्ध रूप, काष्ठ फलकों में देखने को मिलता है। काल के प्रभाव एवं काष्ठ के नश्वर स्वरूप के कारण बहुत से प्राचीन फलक नष्ट हो गये। फिर भी मुनि जिनविजय ने जैसलमेर के भण्डारों से लकड़ी की लगभग १४ चित्रित पट्टियाँ खोज निकाली है और राजस्थानी व अजन्ता, एलोरा कला के मध्य की कड़ी जोड़ दी है । कमल की बेल वाली पटली अत्यन्त विलक्षण है। इसका आलेखन श्री सारा भाई नबाब की भरत-बाहुबलि वाली पटली की दोहरी बेल सा है, अलंकरण तो
और भी अनोखा है। इन बेलों में, एक में जिराफ और दुसरे में गैंडे का अंकन किया गया है, जो भारतीय कला में शायद सबसे पहले यहीं हुआ हो । एक चित्र में मकर के मुख से निकलती कमल बेल बनाई गई है । ऐसी वेल-सांची, अमरावती व मथुरा के अर्ध चित्रों की विशेषता है, अतएव जैन कला की प्राचीनता व उसकी परम्परागत कला से सान्निध्य पर ये चित्र गहरा प्रकाश डालते हैं।'
सबसे प्राचीन सचित्र काष्ठ फल क “सेठ शंकरदान नाहटा कला-भवन", बीकानेर में है ।२, जिसमें सोमचन्द्र आदि का नाम चित्र के साथ लिखा हुआ है। जिनदत्त सूरि का दीक्षा नाम सोमचन्द्र था और उन्हीं का इस फलक में चित्र है, इसलिये यह फलक निश्चित रूप से १११२ ई० के पूर्व का है, क्योंकि १११२ ई० में सोमचन्द्र को चित्तौड़ में आचार्य पद देकर जिनदत्त सूरि नाम दिया गया था। यह काष्ठ पट्टिका ३४१११ इंच की है। इसके चारों ओर सीमा व ३ खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में आचार्य गुणसमुद्र और सामने ही आसन पर सोमचन्द्र गणि बैठे हुये हैं। आचार्य के पृष्ठ भाग में पीठ १. मुहस्मृग, पृ० ६९४ । २. नाहटा, राजस्थान वैभव, पृ० ११९ ।
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